Thursday 21 June 2012

हिन्दूओं में जातीय व्यवस्था




हिन्दूओं में जातीय व्यवस्था

हिन्दूओं में जातीय परम्परा पुरानी है | और अब समाज का विकृत रूप लेने को  आतुर है |यह परम्परा कहीं से ठीक नहीं नजर आती हालाकि , इनका आरंभ ऋषियों द्वारा किया गया और समाज के आवश्यकता के हिसाब से किया गया | कर्म के आधार पर चलने वाली यह परम्परा अब कलुषित मानसिकता की पर्याय बन गयी है | इसके आधार पर नेताओं की स्वार्थ सिध्ही प्रसिद्ध है | पेश है इस सम्बन्ध में धर्म ग्रन्थ आधारित कुछ तथ्य |
ऋग्वैदिक काल
प्राचीन काल में सिद्ध तपस्वियों द्वारा इस प्रथा की नीवं डाली गयी | वैदिक काल में हिंदू धर्म में तीन वर्ण थें | इन वर्णों की व्यवस्था इनके कर्मो के अनुसार की गयी | ऋग्वैदिक काल में इनका वर्णन कुछ इस प्रकार है |
१.       ब्रह्मा जो ब्रह्म की या ईश्वर की उपासना करे तथा जो यज्ञों का संपादन करे
२.       क्षत्र आर्यों के भारत आगमन के पश्चात अनार्यों से युद्ध हुआ ,फलस्वरूप आर्यों ने अपने कबीले से शक्तिशाली लोगों को रक्षा हेतु चुना जिन्हें क्षत्र कहा गया अर्थात जो क्षत यानि हानि से रक्षा करे वह क्षत्र |
३.       विश: - इन दोनों के आलावा शेष सारे लोग विश: कहलाये |
कुछ  इतिहास कारों   के अनुसार आर्य तथा अनार्य दोनों वर्गों के बिच जो श्रमिक वर्ग उभर कर आयी उन्हें शूद्र की संज्ञा दे दी गयी |
इसके पूर्व कर्म हीं जाती का आधार बनता था वंशानुगत नहीं  |

यथा :

एकवर्ण मिदं पूर्व विश्वमासीद् युधिष्ठिर । 
कर्म क्रिया विभेदेन चातुर्वण्य प्रतिष्ठितम्॥ 
र्सवे वै योनिजा मर्त्याः सर्वे मूत्रपुरोषजाः । 
एकेन्दि्रयेन्द्रियार्थवश्च तस्माच्छील गुणैद्विजः । 
शूद्रोऽपि शील सम्पन्नो गुणवान् ब्राह्णो भवेत् । 
ब्राह्णोऽपि क्रियाहीनःशूद्रात् प्रत्यवरो भवेत्॥ (महाभारत वन पर्व) 

पहले एक ही वर्ण था पीछे गुण, कर्म भेद से चार बने । सभी लोग एक ही प्रकार से पैदा होते हैं । सभी की एक सी इन्द्रियाँ हैं । इसलिए जन्म से जाति मानना उचित नहीं हैं । यदि शूद्र अच्छे कर्म करता है तो उसे ब्राह्मण ही कहना चाहिए और र्कत्तव्यच्युत ब्राह्मण को शूद्र से भी नीचा मानना चाहिए ।                                         
वेदाध्ययनमप्येत ब्राह्मण्यं प्रतिपद्यते । 
विप्रवद्वैश्यराजन्यौ राक्षसा रावण दया॥ 
शवृद चांडाल दासाशाच लुब्धकाभीर धीवराः । 
येन्येऽपि वृषलाः केचित्तेपि वेदान धीयते॥ 
शूद्रा देशान्तरं गत्त्वा ब्राह्मण्यं श्रिता । 
व्यापाराकार भाषद्यैविप्रतुल्यैः प्रकल्पितैः॥ (भविष्य पुराण) 

ब्राह्मण की भाँति क्षत्रिय और वैश्च भी वेदों का अध्ययन करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त कर लेता है । रावण आदि राक्षस, श्वाद, चाण्डाल, दास, लुब्धक, आभीर, धीवर आदि के समान वृषल (वर्णशंकर) जाति वाले भी वेदों का अध्ययन कर लेते हैं । शूद्र लोग दूसरे देशों में जाकर और ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का आश्र्ाय प्राप्त करके ब्राह्मणों के व्यापार, आकार और भाषा आदि का अभ्यास करके ब्राह्मण ही कहलाने लगते हैं । 
अनभ्यासेन वेदानामाचारस्य च वर्जनात् । 
आलस्यात् अन्न दोषाच्च्ा मृत्युर्विंप्रान् जिघांसति॥ (मनु.) 

वेदों का अभ्यास न करने से, आचार छोड़ देने से, कुधान्य खाने से ब्राह्मण की मृत्यु हो जाती है 

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च॥ (मनुस्मृति) 
आचारण बदलने से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र यही बात क्षत्रिय तथा वैश्य पर भी लागू होती है  
आचारहीनं पुनन्ति वेदाः  (वशिष्ठ स्मृति) 

आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते |
जातिरिति चर्मणो रक्तस्य मांसस्य चास्थिनः जातिरात्मनो जार्तिव्यवहार प्रकल्पिता॥ (निरावलम्बोपनिषद्) 

जाति चमड़े की नहीं होती, रक्त, माँस की नहीं होती, हड्डियों की नहीं होती, आत्मा की नहीं होती वह तो मात्र लोक-व्यवस्था के लिये कल्पित कर ली गई  

तथा 
उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद का एक ऋषि कहता है : मैं एक कवि हूँ | मेरा पिता वैध  है तथा  मेरी माता अन्न पीसने वाली है | साधन भिन्न है परन्तु सभी धन की कामना करते हैं |

कालान्तर में शूद्रों की स्थिति दयनीय होती चली गयी |जाती प्रथा का आधार जन्म अर्थात वंशानुगत होता चला गया नाना प्रकार की कुरीतियाँ इस धर्म में समाती चली गयी|
परिणाम आज पूरा देश और समाज भोग रहा है | कहीं जात के आधार पर वोट की  मांग ,कहीं जातिगत दुश्मनी के कारण मार काट हाय रे हाय विश्व गुरु रहने वाला देश !


जाती के आधार पर भेदभाव कहीं उचित नहीं ठहरता | इस कुरीति को दूर करने के लिए प्रत्येक भारतीय को कृतसंकल्पित  होना चाहिए |



      













6 comments:

  1. जातिरिति च । न चर्मणो न रक्तस्य मांसस्य न चास्थिनः । न जातिरात्मनो जार्तिव्यवहार प्रकल्पिता - सुन्दरम अति सुन्दरम

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  2. सुन्दर बात, सुन्दर पोस्ट! भारतीय समाज में पैठ बना चुकी कुरीतियों से जितनी जल्दी पीछा छुड़ाया जा सके, बेहतर होगा!

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  3. हिन्दू/सनातन/वैदिक धर्म का मुखौटा बने जातिवाद की जड़ भी वेदों में बताई जा रही है और इन्हीं विषैले विचारों पर दलित आन्दोलन इस देश में चलाया जा रहा है |

    परंतु, इस से बड़ा असत्य और कोई नहीं है | इस में हम इस मिथ्या मान्यता को खंडित करते हुए, वेद तथा संबंधित अन्य ग्रंथों से स्थापित करेंगे कि -
    १.चारों वर्णों का और विशेषतया शूद्र का वह अर्थ है ही नहीं, जो मैकाले के मानसपुत्र दुष्प्रचारित करते रहते हैं |
    २.वैदिक जीवन पद्धति सब मानवों को समान अवसर प्रदान करती है तथा जन्म- आधारित भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं रखती |
    ३.वेद ही एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जो सर्वोच्च गुणवत्ता स्थापित करने के साथ ही सभी के लिए समान अवसरों की बात कहता हो | जिसके बारे में आज के मानवतावादी तो सोच भी नहीं सकते |
    Please read this article with enough supporting facts against casteism
    http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/try-it-too/entry/%E0%A4%B5-%E0%A4%A6-%E0%A4%B6-%E0%A4%B8-%E0%A4%A4-%E0%A4%B0-%E0%A4%95-%E0%A4%A6-%E0%A4%A8-%E0%A4%9C-%E0%A4%A4-%E0%A4%B5-%E0%A4%A6-%E0%A4%AD-%E0%A4%97-11

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  4. श्रीमान यह जानकर आश्चर्य और दुख हुआ कि आप भी यह मानते हैं कि आर्य भारत मे बाहर से आये ... श्रीमान यह पाश्चात्य विद्वानों द्वारा फैलाया गया झुठ था कि आर्य भारत मे बाहर से आये जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं है...आर्य भारत के ही मुल निवासी थे इसको हमारे कई भारतीय विद्वानों ने प्रमाणित भी कर दिया है...

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