Sunday 6 December 2015

मैं आपकी क्या मदद करूँ और कैसे करूँ ?

 ( रहस्य )
मित्रों  सप्रेम नमस्कार  _/\_
       दुनिया में सुख  दुःख दोनों हैं | सुख का आभास क्षणिक होता है किन्तु दुःख लम्बे समय तक प्रतीत होता है |  किसी के पास पैसे हैं तो भूख नहीं और किसी पास भूख है तो पैसे नहीं | सम्पूर्ण कोई नहीं है | ये उपर वाले का विचित्र खेल है | कभी कभी लोगों के दुखों से मन द्रवित हो उठता है | ईश्वर  की सर्वोच्च कृति है मनुष्य | बहुत हीं अजीब लगता है जब मनुष्य मनुष्य की मदद करने से कतराता है | कुछ भी ले कर नहीं आये हो और न हीं ले कर जाओगे | अच्छा तो ये होता की जो भी इस धरा पर आएं हैं कम से कम अपना यश तो छोड़ जाते | किन्तु ऐसा नहीं होता | दरअसल मनुष्य ने  अपना दायरा छोटा कर लिया है | अपने लिए जीना है अपने घर परिवार वाले के लिए जीना है बस इसी सोच में मनुष्य सिमट कर रह गया है | अरे भाई कभी अपने पड़ोसियों की भी सुध लो | कम से कम उनका हाल चाल तो पूछ लो | कम से कम प्रेम भरी दो बातें तो कर लो उनसे |

        हमारा हर प्रयास ऐसा होना चाहिए जिसमे दुसरे की भी मदद हो जाए | मैं ये कभी नहीं कहता की दुसरे को भोजन बाटो , कपडे बाटो नहीं | बल्कि ऐसा करने से जरुरतमन्द आराम पसंद हो जायेगा | किसी को भी मुफ्त में कोई चीज नहीं मिलनी चाहिए प्रत्येक को प्राप्त वस्तु का मूल्य चुकाना हीं चाहिए | ताकि अपने भीतर एक प्रकार का आत्मविश्वाश उत्पन्न हो | मुफ्तखोर होने पर आदमी कुंठित और हीन भावना का शिकार हो जाता है एक दिन | अब कुछ मुफ्तखोर बिलकुल हीं निर्लज्ज हों तो क्या कहने |
       प्रत्येक मनुष्य को ऐसा प्रयास करना चाहिए जिससे कोई स्वालम्बी बन सके दुसरे पर निर्भर नहीं | अब कुछ व्यक्ति  लाचार होते हैं उनकी मदद अवश्य करें  | दुनिया में हर तरह के इंसान हैं किसी के पास हाथ नहीं है तो कोई पैर के कारण लाचार है | यानी की शारीरिक रूप से असक्षम व्यक्ति भी हैं बीमार दीन हीन उनकी मदद अवश्य करनी चाहिए |

       स्मरण रखें आप मानव तभी हैं जब आपके भीतर मानवता हो वर्ना आपमें और पशुओं में कोई फर्क नहीं |
       और कुछ नहीं कर सकते हैं तो कम से कम सोते वक्त सभी के लिए प्रार्थना करें | प्रार्थना दो चरणों में करें |
1 . उन सभी व्यक्तियों को याद करें जिन्हें आप जानते हैं ख़ास कर उन्हें जो लाचार हों , बीमार हों , किसी भी तरह से दुखी हों | आँखे बंद कर लें और प्रार्थना करें ईश्वर से  दस मिनट पुरे भाव से | यकीन मानें आपके प्रार्थना का ऐसा असर होगा की आपका भी कायाकल्प होगा और जिसके लिए प्रार्थना कर रहें उसका भी कायाकल्प होगा    ( स्वानुभूत )  |
       मेरे एक परिचित मित्र थे वे बहुत अधिक बीमार थे | मैंने उनके लिए तांत्रिक और मान्त्रिक प्रयोग किये किन्तु बात नहीं बनी , बहुत से मामलों में बन जाती है | किन्तु इस बार न बनी | मैंने उनके लिए आँखें बंद कर के अश्रुपूर्ण नयनों से प्रार्थना की और यकीन मानिए चमत्कार हो गया |
2 अपने परिचितों के लिए प्रार्थना करने के बाद समस्त जगत के प्राणियों के लिए प्रार्थना करें दस मिनट | और सभी कुछ ईश्वर पर छोड़ दें |

 प्रार्थना करने से स्वयं का भाव शुद्धि होता है यह एक ऐसी युक्ति है जिससे स्वयं का भी कल्याण होता है और जिसके लिए कल्याण चाहा जाता है उसका तो होता हीं है |

प्रार्थना के लिए कोई विशेष युक्ति नहीं है आपको जैसे भी आता हो चलेगा बस हर भाव  हृदय से निकलने चाहिए  |

Thursday 3 December 2015

सारी समस्याओं का निदान ऐसे संभव है

देश  में  अनेकों अनेक समस्याएं  हैं |  कुछ समस्याएं विकराल  हैं जैसे आतंकवाद , जातिवाद  , क्षेत्रवाद , धार्मिक  असहिष्णुता  आदि  आदि | देश  में  दूसरी श्रेणी की  समस्या है भ्रष्टाचार ,  स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या , बेरोजगारी  , गरीबी  , असामनता  , भूख , भेद भाव आदि  आदि  | सवाल  ये  है कि हम समस्याओं पर सिर्फ चिलाते  हीं रहेंगे  या ये  समस्याएं समाप्त  हों इसके  प्रति कारगर कदम भी  उठाने पड़ेंगे |
मैंने इन समस्यायों पर चिन्तन किया तथा कुछ कारगर उपाय  मेरी दृष्टि  में सूझे जिनके द्वारा  इन समस्यायों को समाप्त किया जा सकता  है  |
1 देश की समस्यायों का रामबाण हल
       देश में जितनी भी समस्याएं  हैं कुछेक को छोड़ कर ( जो बाहरी प्रभाव के कारण हैं आतंकवाद आदि ) एक कारगर समाधान है “ देश का प्रत्येक  नागरिक अपने नैतिक मूल्यों को उपर उठाये अर्थात अपना नैतिक पतन नहीं होने दें |”  एक कहावत है “ हम बदलेंगे युग बदलेगा |”  बदलाव अपने भीतर लाना है | मेरे इस कथन पर आँख बंद कर के मनन करें मंथन करें फिर मुझे बताएं मैंने गलत कहा या सही |
2 व्यक्तिगत स्वास्थ्य की समस्या
       देश के अधिकाँश नागरिक अपनी स्वास्थ्य के प्रति चिंतित हैं | अस्वस्थता देश के अधिकाँश नागरिकों की समस्या है | अस्वस्थता का मूल कारण है अपना अस्वस्थ  मन चाहे वह कैसी भी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या हो जी हाँ कोई भी स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या  | अपने मन को स्वस्थ रखने के उपाय करें | मन स्वस्थ रह सकता है अध्यात्म की शरण में | मन स्वस्थ रहता है अपने स्वभाव में स्थित रहने पर | अपने अस्वाभाविक प्रवृतियों का त्याग करें | ध्यान करें | अपने शारीरिक क्षमता के हिसाब से योगाभ्यास करें |
आप किसी भी धर्म के हों अपने धर्म के मूल भाव को समझें और उस पर मनन चिन्तन करें सारी समस्यायों का हल वहां मिलेगा , किन्तु ईमानदारी से मनन चिन्तन करें |

और मनन चिन्तन के बाद पुन : उपस्थित होऊंगा 

Sunday 22 November 2015

ध्यान क्या है अपने भीतर प्रवेश करना |

बाहर  के जगत से तो हम परिचित  हैं हीं | अपना स्वभाव हीं ऐसा है कि सिर्फ और सिर्फ बाहर हीं विचरण करते रहते हैं हम सभी | अस्सी प्रतिशत बाहरी जगत से हम आँख के द्वारा परिचित होते हैं | यानी अधिकाँश आकर्षण आँख के द्वारा हीं पैदा होता है | इसलिए ध्यान करने के पहले हमें आँख बंद करना होता है | तब भीतर का जगत दीखता है थोडा सा | थोडा सा इसलिए क्योंकि फिर कल्पनाएँ हावी होने लगती है खुद पर | आँख बंद हुआ नहीं की कल्पना का घोडा दौड़ना शुरू | कभी भविष्य का  ख्याली पुलाव पकाते हुए तो कभी अतित को   याद करते हुए | मन स्थिर होता हीं नहीं स्वभाव हीं इसका ऐसा है स्थिर होगा भी कैसे | तो कोई युक्ति लगानी होगी और हम कह सकते हैं यह युक्ति है ध्यान | ध्यान में मन को शरीर के भीतर भ्रमण करने का छूट दिया जाता है | 

कभी साँसों पर ध्यान केन्द्रित करना होता है तो कभी हृदय की धडकन पर | ध्यान में शरीर के भीतर हो रहे  रक्त संचरण को भी सुना जा सकता है | तो मन शरीर में हो रही संवेदनाओं के प्रति सजग होने लगता है और रहस्य खुलने लगते हैं | एक से एक कौतुक दिखते हैं बंद आँखों से शरीर के भीतर किन्तु हम तो कभी शरीर के भीतर जाते हीं नहीं सिर्फ बाहर विचरण करते रहते हैं |

       एक के बाद एक रहस्यों से पर्दा उठता जाता है शरीर के भीतर विचरण करने पर और अंतत: उसका दीदार होता है अरे भाई उसी का जो हम वास्तव में हैं परमात्मा कहें बड़े स्तर पर या आत्मा कहें छोटे स्तर पर ! 

ये  विडिओ  आपके  ध्यान लगाने  में सहयोगी होगा 

Monday 9 November 2015

दीपावली पर धन समृधि बढ़ाने का अचूक प्रयोग

धनतेरस, नरक चतुर्दशी  , और दीपावली को आप लक्ष्मी पूजा तो करेंगे हीं | किन्तु इस बार एक छोटा सा प्रयोग और जोड़ दें अपने पूजा में | यह प्रयोग खर्चीला भी नहीं है और अत्यंत अत्यंत फलदायी है | ये मैं नहीं दावा करूँगा की आप धन्ना कुबेर हो जायेंगे या अम्बानी या बिडला बन जायेंगे | किन्तु वर्तमान स्थित में धन वृद्धि के मामले में सुधार अवश्य होगा इसमें कोई शक नहीं | यह प्रयोग अत्यंत गोपनीय है सर्वत्र इसका उल्लेख नहीं मिलेगा |
      

अप्पको करना बस यह है आप जो पूजा दीपावली को करेंगे इस बार ऐसा करें पांच सुपारी खरीद कर लायें | उसे धो कर स्वच्छ कर लें | पूजा आरम्भ करने के पहले उसे पूजा स्थल पर किसी कपडे पर रख दें | आप जो पूजा करते हैं वे करें | फिर अंत में खूब भाव से देवी  लक्ष्मी को याद करें | दो मिनट उनका ध्यान लगायें | लक्ष्मी देवी के तस्वीर को अपनी आँखें बंद कर  अपने मानस पटल पर देखने की कोशिश करें | तस्वीर नहीं भी उभरती है तो कोई बात नहीं | ध्यान लगाने के बाद लाये गये सुपारी पर रोली या चन्दन चढ़ाएं | फिर थोडा अक्षत चढ़ाएं  | पुष्प अर्पित करें | दिवाली में पूजा के लिए  लाये गये नैवेध ( मिठाई , फल आदि ) का मन हीं मन भोग अर्पित करें | फिर जल अर्पित कर देवी लक्ष्मी को मन हीं प्रार्थना करें की हे देवी ! इस बार सभी धनाढय व्यक्तियों के घर की तरह मेरे घर भी निवास करें |    
       हो गयी आपकी पूजा सम्पन्न | सुपारी को अपने पूजा स्थल पर हीं रखें | अगले वर्ष फिर से नई सुपारी खरीद पूजा करें तथा पुराने सुपारी को जल में विसर्जित कर दें |

यह पूजा कभी भी फलदायी है चाहे दिवाली हो या किसी अन्य दिन भी |

Friday 6 November 2015

ईश्वर की खुमारी ( मूलाधार चक्र की यात्रा )

वह अपने हीं शरीर का अवलोकन कर स्तब्ध था | इसके पूर्व उसने अपने हीं शरीर की ऐसी यात्रा कभी नहीं की थी | वाह ईश्वर ! वाह ! अदभुत है तेरी कृति | मन हीं मन वह विचारने लगा |सम्पूर्ण शरीर में भाँती भाँती के अदभुत प्रकाश जिसे उसे अपनी बाहरी दुनिया में कभी नहीं देखा था सभी दिखाई दे रहे थे | उसने तो शरीर में सात चक्रों के बारे में  सुन रखा था यहाँ तो शरीर के भीतर सर से पाँव तक अनेकों अनेक चक्र दिखाई दे रहे थे उसे |
वह स्तब्ध हो कर मनीषी से पूछा -  “ यहाँ तो अनेकों चक्र हैं शरीर के भीतर |”
-    “ हाँ |”  मनीषी ने जबाब दिया
-    “ दरअसल यही सारे चक्र मनुष्यों के शरीर का संचालन करते हैं दिव्य ईश्वरीय तरंगो के द्वारा | सूर्य का प्रकाश भी इसमें सहायक है | ये चक्र पृथ्वी पर मौजूद प्रत्येक प्राणियों में स्थित है यहाँ तक की पेड़ पौधों में भी | तुम्हें क्या लगता है कि तुम सिर्फ भोजन ,जल एवं वायु से हीं जीवित हो ” मनीषी ने कहा |
-    “अच्छा इधर आओ यहाँ देखो जनेंन्द्रिय से थोडा पीछे रीढ़ की अंतिम हड्डी से थोडा आगे दोनों के मध्य में क्या दिखाई देता है ? मनीषी ने पूछा |
वह गौर से उस ओर देखने लगा जहाँ मनीषी ने निर्देशित किया था
-    “अदभुत ! अदभुत ! यहाँ तो अदभुत सुगंध व्याप्त है जैसा की बाह्य जगत में  नहीं |” उसके मन में गूँज उठा
-    “यहाँ तो पीले प्रकाश की अदभुत छटा है और दिव्य सुगंध भी  |” उसने कहा
-    “प्रकाश के पार देखो | अपने दृष्टि और सूक्ष्म करो |” मनीषी ने कहा |  
-    “ओह्ह हो ! यहाँ तो मुझे कमल की चार पंखुडियां नजर आ रही है जो की बाहरी जगत में दिखने वाले लाल रंग सी प्रतीत हो रहीं हैं फिर भी रंगों की कोई तुलना भी की जा सकती  | ” उसने कहा |
-    “दृष्टि को और सूक्ष्म करो |” मनीषी ने निर्देश दिया और उसका हाथ अपने हाथों में पकड लिया | हाथ मनीषी के हाथ में आते हीं उसकी दृष्टि और खुल गयी |
-    “अह्ह्ह ! अदभुत ! मेरे भगवन ! इन प्रत्येक  पंखुड़ियों पर तो एक एक अक्षर खुदे हुए हैं जिनका रंग अदभुत सुनहला है |” उसने कहा
-    “निरिक्षण करते जाओ |” मनीषी ने आदेशात्मक लहजे में कहा |

-    “अरे ये क्या यहाँ तो एक वर्गाकार आकृति है इसका रंग पिला है | पिला प्रकाश तो यहीं से फूट रहा है | इस पीले प्रकाश , वर्ग , और कमल के चार पंखुड़ियों का क्या रहस्य है भगवन ! यह क्या है |”
-    “ तुम जहाँ स्थित हो इस वक्त यह मूलाधार चक्र है | इस चक्र का तत्व पृथ्वी है इसलिए यहाँ पीले रंग की प्रधानता हैऔर सुगंध बिद्यमान है  | इस चक्र की  तन्मात्रा गंध है | दरअसल यहाँ की  प्रधान तन्मात्रा गंध है | पृथ्वी तत्व में और तन्मात्राओं की भी विशेषता होती है जैसे  रूप , रस , स्पर्श , शब्द |  और उपर यात्रा करने पर ये भी दृश्य होंगे | प्रधान तन्मात्रा गंध होने के कारण तुम्हें सुगंध मह्शूश हुआ | मानव मूलाधार चक्र के स्तर पर हीं जीता है | इसलिए इस चक्र के गुण उसे खींचते हैं | पाँचों तन्मात्राएँ सक्रीय होने के कारण मनुष्य इन तन्मात्राओं के गुण की ओर आकर्षित होता है | अर्थात गंध , रूप , रस , स्पर्श  तथा शब्द से मनुष्य आकर्षित होता है और काम (वासना ) का निर्माण होता है मनुष्यों में |प्रत्येक इन्द्रिय एक एक तन्मात्राओं से जुडी हुईं हैं | बाह्य जगत से ये चक्र हीं  अपने स्वभावनुसार गुणों को खींचकर इन्द्रियाँ के माध्यम से मनुष्य में उथल पुथल मचाते हैं(मनीषी के चेहरे पर मुस्कुराहट थी) ऐसा इसलिए क्योंकि ये चक्र जागृत नहीं हैं |
-    “जागृत नहीं हैं तो फिर ये कार्य कैसे कर रहें हैं जैसा आपने बताया |” उसने प्रश्न  दागा |
-    “ कहने का तात्पर्य ये है कि ये चक्र अपने स्वाभाविक अवस्था में कार्य कर रहें है जागृत या अधिक उर्जावान हो कर नहीं |”
-    “ क्या वर्ग की आकृति वैसी हीं है जैसा तुम बाह्य जगत में देखते हो |” मनीषी ने पूछा |
-    “ नहीं यह वर्ग तो अदभुत है इसके चारों कोनों पर भाले की नोक जैसी आकृति बनी हुई है | और वर्ग के चारो भुजाओं के मध्य में भी नुकीली आकृति दृश्यमान है नुकीली आकृति का रंग भी अदभुत सुहला है  |” उसने कहा |

मनीषी मन हीं मन मुस्कुराए और कहा – और आगे दृष्टिपात करो |
 जारी ........

ईश्वर की खुमारी - 2

गतांक से आगे ........
शाम ढलने को आई थी  वह ध्यान लगाने के लिए तत्पर था | कुश  आसन बिछा कर उस पर पद्मासन लगाये ध्यान को नासिकाग्र पर स्थिर करते हुए प्राणायाम का अभ्यास कर रहा था वह | किन्तु ध्यान लग नहीं रहा था | ख्याल में बार बार वही ऋषि जैसे दिखने वाले महात्मन का ख्याल आ जाता था | (पूरी कथा के लिए पढ़ें पिछला भाग ब्लॉग पर जा कर  )
लाख प्रयत्नों के वावजूद आज ध्यान नहीं लग रहा था | अंतत उठ कर उपरी मंजिल के  कमरे से होते हुए बालकनी में आया | वहां से गंगा की कल कल ध्वनी सुनाई दे रही थी  और बाहर का  वातावरण बिलकुल हीं मनमोहक लगने लगा उसे | आराम कुर्सी ( Rest Chair ) पर पीठ टिकाये न जाने किस क्षण उसकी आँख झपक गयी | ध्यान जैसी तन्द्रा अवस्था में पुन : उसके मन: क्षेत्र में उन महापुरुष का आगमन हो चुका था | लगा कुछ क्षण के लिए  हजारों वाट का बल्ब जल गया हो | किन्तु कुछ क्षणों में हीं पिला मद्धिम प्रकाश रह गया मन: क्षेत्र में | इस बार पीली रेशमी कुर्ते और पीली रेशमी धोती पहने नजर आये वे |

-    “किन ख्यालों में हो |” महात्मन ने पूछा
-    “नहीं मैं सोच रहा था आप कौन हैं |” उसने कहा
-    “समय आने पर सब बता दूंगा | मैं साफ़ देख रहा हूँ तुम्हारे भीतर आत्म ज्ञान तथा ब्रह्म ज्ञान पाने की आतुरता हिलोरें ले रहीं है | ” महात्मन ने कहा
-    “जी निसंदेह आप मेरे  मन: क्षेत्र में हैं और आपसे मेरे  मन की कोई बात नहीं छिपी हुई है |” उसने कहा
-    हूँन्न्न्न............ और वे मंद मंद मुस्काने लगे |
-    “अच्छा बताओ तो जरा मैं और तुम तुम्हारे खोपड़ी के जिस भाग में हैं उस क्षेत्र को क्या कहतें हैं |” उन्होंने पूछा |
-    “जी मेरी मति तो कहती है ये चिदाकाश है |” उसने कहा |
-    सत्य है ! चिदाकाश चित का आकाश जहाँ  एकाग्र होने पर चित यानी मन की गतिविधियाँ विचार आदि  दिखाई देने लगती है और तुम साक्षी बन जाते हो |” ऋषि जैसे दिखने वाले महापुरुष ने कहा |
-    “ जी |” उसने कहा 
-    “अच्छा आओ मेरे पीछे पीछे जरा तुम्हारे शरीर का भीतर से निरिक्षण करूँ |” महा पुरुष ने कहा
कुछ हीं क्षणों में सम्पूर्ण शरीर में भ्रमण के बाद दोनों शरीर के भीतर हीं एक बिंदु पर खड़े थे |
-    “क्या दिखाई देता है ?” महात्मन ने पूछा |
-    “जी  पाँव से सर के चोटी तक केवल भवंर ( चक्र ) हीं भंवर नजर आ रहे हैं | प्रतीत होता है इन भंवरों  से शक्ति बाहर निकल कर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो रही है |” उसने अपने आज्ञा चक्र वाले चक्षु से देख कर कहा |
महापुरुष के चेहरे पर मंद मुस्कान उभर आयी


आगे जारी है .......

Tuesday 3 November 2015

ईश्वर की खुमारी

उसकी आज्ञा चक्र जागृत थी | वह देख सकता था वह सब कुछ जो घटित होने वाला था या घटित हो चुका था | बस परेशानी यह थी  कि यह  स्वयं उस पर लागू नहीं थी |  उसकी उम्र रही होगी कोई पचीस साल | अदभुत नौजवान गठीला बदन , घुंघराले बाल , उभरी हुई कपाल और कपाल पर अभूतपूर्व तेज़ | किन्तु मन अभी भी स्थिर नहीं था उसका |  बेचैनी की एक पतली सी लकीर अभी भी उसके चेहरे पर देखी  जा सकती थी | उसे सत्य की खोज थी बाल्यकाल से हीं |
ऋषिकेश में गंगा किनारे बालू ( रेत ) पर बैठ कर ध्यानमग्न था वह | अप्रतिम लोक का अवलोकन कर रहा था | उसके साँस लेने में लयबद्धता थी | नाप तौल कर साँस लेता था और छोड़ता था | प्राणायाम का अभ्यासी था वह | अपने हीं भीतर खोया हुआ भ्रूमध्य में ध्यान लगाये हुए एक अलग लोक में छलांग लगाने को तैयार था वह | अदभुत प्रकाश का अवलोकन कर रहा था वह |
अपने हीं मानस  लोक में विचरण कर रहा था वह की सघन प्रकाश के मध्य एक आकृति प्रगट  हुई उसके मनसपटल पर | आकृति धुंधली थी अभी ध्यान को और गहन करने की आवश्यकता थी | ध्यान गहन होता गया आकृति स्पष्ट होती जा रही थी | अब उसके मानस पटल पर साफ़ छवि उभर आई थी | लम्बा डीलडौल  कद , चांदी के मानिंद लम्बे धवल केश और दाढ़ी बिलकुल सफ़ेद | आँखों की पुतलियाँ काली किन्तु भौ का रंग बिलकुल श्वेत | उपर से निचे तक एक हीं सफ़ेद  कौपीन धारण किये वह शख्सियत किसी प्राचीन काल के ऋषि की याद दिला रहें थे |
वह मन हीं मन चौक गया , क्या यह उसकी कल्पना है या यथार्थ | तभी उस ऋषि के समान लगने वाले व्यक्ति ने कहा “ अपने मन को किंचित कष्ट न दो , मैं यथार्थ हीं हूँ |”
मन हीं मन वह उन ऋषि जैसे लगने वाले से बात करने लगा |

- “ आप कौन हैं |”
- मैं हिमालय में निवास करनेवाला एक साधक मात्र हूँ |” ऋषि के समान लगने वाले महापुरुष ने कहा |
- “आप मेरे लिए यथार्थ हैं या कल्पना |”
- “ मैं यथार्थ हूँ और किसी के भी मन: क्षेत्र में प्रवेश कर जाना मेरे लिए आसान है | तुम्हें व्यथित देख मैं तुम्हारे मन: क्षेत्र में आया हूँ | बोलो क्या चाहिए |”
- “आत्म ज्ञान ब्रह्म ज्ञान !” उसने उतर दिया
- “ओह्ह !  हो ! बहुत हीं शुभ विचार है किन्तु इसके लिए तो और जी तोड़ प्रयास की आवश्यकता है , वैसे मैं जहाँ तक अवलोकन कर पा रहा हूँ तुमने स्वयं अपनी साधना के बदौलत थोडा मार्ग तय कर रखा है   | तुम्हारी आज्ञा चक्र जागृत प्रतीत हो रही है मुझे | यह दिव्य लक्षण है तुम्हारे लिए | ”
- “जी ! क्या आप मुझे और  मार्ग सुझायेंगे |”
- “ जरुर , जहाँ तुम रहते हो और जिसके निर्देशन में अपनी साधना कर रहे हो वहां भी कुछ गलत नहीं निर्देशित हो रहा तुम्हारे लिए | मैं भी निर्देशन करूँगा तुम्हारे लिए  किन्तु अभी नहीं अभी मुझे आवश्यक कार्य से अपने साधना स्थली के तरफ जाना है , मैं तुमसे पुन : सम्पर्क करूँगा  | ” यह कह कर वह दिव्य व्यक्तित्व लीन हो गयी | और उस साधक के  भीतर रह गयी  एक मधुर और ताजगी देने वाली खुमारी | जैसे अभी अभी स्नान किया हो |
वह आँख मलते मलते उठा उसका ध्यान भंग हो चुका था , मानस में विचारें हिलोरें ले रहीं थी | उसने जो देखा था स्वप्न नहीं था यह तो कम से कम उसके साधना ने यह बता दिया था | फिर क्या था रहस्य इसका इस पर मनन करते हुए वह ऋषिकेश के गंगा किनारे आश्रम वाले उस कमरे की तरफ बढ़ चला जहाँ उसका निवास और साधना स्थली थी |

फिर हाज़िर होऊंगा _/\_ हाज़िर होता हीं रहूँगा _/\_

Sunday 1 November 2015

शाम्भवी मुद्रा

शाम्भवी मुद्रा योगियों के मनोरथ पूर्ण करने वाली मुद्रा है। उन्नत योग साधकों को शाम्भवी मुद्रा स्वतः ही होने लगती है| फिर भी साधकों द्वारा इसका अभ्यास साधना को सुगम बना देता है|
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श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय और महावातार बाबाजी के चित्र शाम्भवी मुद्रा में ही हैं|
सारे उन्नत योगी शाम्भवी मुद्रा में ही ध्यानस्थ रहते हैं|
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सुखासन अथवा पद्मासन में बैठकर मेरुदंड को उन्नत रखते हुए साधक शिवनेत्र होकर अर्धोन्मीलित नेत्रों से भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर रखता है| धीरे धीरे पूर्ण खेचरी या अर्ध-खेचरी भी स्वतः ही लग जाती है|

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आध्यात्मिक रूप से खेचरी का अर्थ है --- चेतना का सम्पूर्ण आकाश में विचरण, यानि चेतना का इस भौतिक देह में न होकर पूरी अनंतता में होना है | भौतिक रूप से खेचरी का अर्थ है -- जिह्वा को उलट कर भीतर प्रवेश कराकर ऊपर की ओर रखना| गहरी समाधि के लिए यह आवश्यक है| जो पूर्ण खेचरी नहीं कर सकते वे अर्धखेचरी कर सकते हैं जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोडकर तालू से सटाकर रखते हुए|
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अर्धोन्मीलित नेत्रों को भ्रूमध्य में स्थिर रखकर साधक पहिले तो भ्रूमध्य में एक प्रकाश की कल्पना करता है और यह भाव करता है कि वह प्रकाश सम्पूर्ण ब्रह्मांड में फ़ैल गया है| फिर संहार बीज और सृष्टि बीज --- 'हं" 'सः' के साथ गुरु प्रदत्त विधि के साथ अजपा जप करता है और उस सर्वव्यापक ज्योति के साथ स्वयं को एकाकार करता है | समय आने पर गुरुकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| उस ब्रह्मज्योति पर ध्यान करते करते प्रणव की ध्वनि सुनने लगती है तब साधक उसी में लय हो जाता है| सहत्रार की अनुभूति होने लगती है और बड़े दिव्य अनुभव होते हैं| पर साधक उन अनुभवों पर ध्यान न देकर पूर्ण भक्ति के साथ ज्योति ओर नाद रूप में परमात्मा में ही अपने अहं को विलय कर देता है| तब सारी प्राण चेतना आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य स्थिर हो जाती है| यही शाम्भवी मुद्रा की पूर्ण सिद्धि है|                                                                                                                                               
नोट  : बिना  योग्य  निर्देशन के खेचरी मुद्रा  करना  वर्जित  है | लेख में स्वत : खेचरी मुद्रा  लगने का वर्णन  है अगर  ऐसा  स्वत : हो  जाए  तो  कोई  बात  नहीं  |
तस्वीर में शाम्भवी तथा अघोरी  मुद्रा में अंतर दिखाया गया है शाम्भवी मुद्रा में आँख उपर की ओर भ्रूमध्य के तरफ और अघोरी मुद्रा में आँखें निचे की ओर नासिकाग्र के तरफ या निचे |

ॐ 

Friday 17 July 2015

समय गतिशील नहीं बल्कि स्थिर है

आमतौर पर धारणा है कि समय परिवर्तनशील है समय चलयमान , समय गतिशील है ! लीजिये आज मैं आपके इस धारणा का खंडन करता हूँ | यह पूर्णत :गलत है कि समय गतिशील है , बल्कि सच्चाई यह है कि समय बिलकुल स्थिर है | कैसे ? हम समय को कैसे परिभाषित करते हैं मिनट दिन साल आदि से , हम कहते हैं अभी सुबह हुआ है अभी शाम हुआ है , कल बीत गया या कल आने वाला है | या कहते हैं वर्षों बीत गए | या फिर कहते हैं आज सब बदल गया है समय बदल गया है |

दरअसल समय का निर्धारण सूर्य और पृथ्वी की गति से करते हैं , तो क्या इस दरम्यान सचमुच समय गतिशील रहता नहीं बिलकुल नहीं बल्कि सच्चाई यह है कि पृथ्वी गतिशील होती है और उसी के गति के आधार पर हम समय का निर्धारण करते हैं , समय तो स्थिर होता है | क्या पृथ्वी की गति हीं समय है नहीं यह भी सत्य नहीं है पृथ्वी की गति वृताकार है , सुबह होता है , दोपहर फिर शाम , रात्री तथा फिर सुबह इस प्रकार सर्किल चलता रहता है |
हम कहते हैं आज हम जवान हैं कल बच्चे थे और कल बूढ़े हो जायेंगे समय एक समान नहीं है | भाई ये परिवर्तन समय का नहीं बल्कि आपके भीतर का है शारीरिक परिवर्तन | हम कहते हैं कल जो गरीब था आज करोडपति अमीर है फलां का समय बदल गया नहीं नहीं फलां का समय नहीं बल्कि आर्थिक स्थिति बदल गयी |
अब सवाल यह है कि समय क्या है तो जबाब है .....
समय परमात्मा है जो स्थिर है समय आपके भीतर की आत्मा है |
ये विचार मेरी आत्मानुभूति है इस पर अपने विचार अवश्य दें |

Tuesday 2 June 2015

आज्ञा चक्र -6 ( अंतिम भाग )

चक्रों के जागरण के पूर्व हमारी स्थिति भ्रमित रहती है | आसक्ति , द्वेष और इर्ष्या , दुःख और सुख , जीत और हार तथा और भी अनेक क्षेत्रों में हमारे दृष्टिकोण दोषपूर्ण होता है तथा मान्यताएं गलत होती है | यद्धपि आसक्ति उपर से दिखाई नहीं देती फिर भी वह हमारे भीतर है | विश्वाश करें हमारा मन एक सिमित दायरे में कार्य कर रहा है और हम उससे परे  नहीं हो सकते | जिस प्रकार रात्री में हम एक स्वप्न देखते हैं और स्वप्न में होने वाला अनुभव भी अपनी मन:स्थिति से सम्बन्धित है ठीक उसी तरह हम दिन में भी स्वप्न देख रहे हैं और यह भी अपने वर्तमान मन:स्थिति से सम्बन्धित है   | ठीक उसी प्रकार जब आज्ञा चक्र का जागरण होता है तो हम स्वप्नावस्था से जागृत अवस्था में आते हैं | तब  इस वर्तमान जीवन की वास्तविकता  और कारण तथा प्रभाव के बीच के सम्बन्ध को समझने लगते हैं |

अपने जीवन के सम्बन्ध में कारण और प्रभाव के नियम को समझना बहुत हीं आवश्यक है , अन्यथा हम निराश होने लगते हैं तथा जीवन की दुखद घटनाओं के प्रति मन दुखी होने लगता है | मान  लें एक बच्चे का जन्म होता है और तुरंत उसकी मृत्यु हो जाती है | अब सोचे ऐसा क्यूँ हुआ यह पहेली प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के दिमाग में आएगी है की नहीं ! यदि जन्म के तुरंत बाद  बच्चे को मरना हीं था तो बच्चे ने जन्म क्यों लिया ? आप इस तथ्य को तभी समझ सकते हैं जब आप कारण और प्रभाव के नियमों को समझते हैं |
कारण और प्रभाव तुरंत  होने वाली घटनाएँ नहीं है , प्रत्येक कार्य कारण और प्रभाव दोनों हैं |यह वर्तमान जीवन एक प्रभाव है लेकिन इसका कारण क्या था ? आपको इसे खोजना है , तभी आप कारण और प्रभाव के बीच के सम्बन्ध को समझ सकते हैं | आज्ञा चक्र के जागरण के पश्चात हीं इन नियमों को जाना जा सकता है | उसके बाद  जीवन के प्रति विचारधारा तथा दार्शनिक दृष्टिकोण बदल जाता हैं  | तब किसी भी घटना से व्यक्ति दुष्प्रभावित नहीं होता और न हीं जीवन की आवंछित घटनाएँ उसे परेशान करती हैं | जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति सहज रूप से भाग लेता है परन्तु वह मात्र द्रष्टा हीं रह जाता है | जीवन एक तेज़ करेंट की तरह बहता रहता है और व्यक्ति उसके धरा के प्रति समर्पित हो कर बहता चला जाता है ||
एक बार आज्ञा चक्र के जागरण के बाद सहस्त्रार तक पहुंचना कठिन नहीं होता | ठीक उसी तरह जैसे आप दिल्ली पहुँच गयें फिर इंडिया गेट पहुंचना आपके लिए कठिन नहीं होगा | यहाँ आज्ञा चक्र को दिल्ली समझें तथा सहस्त्रार  को इंडिया गेट | इसी कारण वश मैंने आज्ञा चक्र पर इतनी श्रीन्ख्लायें प्रस्तुत की है ताकि आज्ञा चक्र के महत्व को समझा जाए | किसी और चक्र से शुरुआत के वनिस्पत आज्ञा चक्र से शुरुआत करना ज्यादा आसान और फलदायी होगा |
इति शुभ !
आगे  बिंदु  पर एक दो लेख  होगा  !
फिर  
आगे आज्ञा चक्र सम्बन्धित सरल  ध्यान प्रयोग  प्रस्तुत करूँगा कुछ लिखित में तथा कुछ Mp3 फोर्मेट में इसलिए ब्लॉग पर निरंतर बने रहें |