Tuesday 31 May 2016

स्वाधिष्ठान चक्र 3

स्वाधिष्ठान को व्यक्ति के अस्तित्व का अधार माना गया है | मष्तिष्क में इसका रूप अचेतन मन है ,जो संस्कारों का भंडारगृह भी है | ऐसा कहा जाता है कि प्रत्येक कर्म , पिछला जन्म , पिछले अनुभव , मानव व्यक्तित्व  का सबसे बड़ा पक्ष अचेतन सभी का प्रतीक स्वाधिष्ठान चक्र को माना जाता है | अचेतन मन संस्कारों का जमा होने का केंद्र है | तथा यही इस चक्र के स्तर पर अनुभव की जानेवाली अनेक नैसर्गिक अनुभूतियों का उद्गम भी है |

       तन्त्र में पशु तथा पशु का नियन्त्रण जैसी एक धारणा है | संस्कृत में पशु का अर्थ है जानवर और पति का मतलब है नियंत्रक | पशुपति का अर्थ है – सभी पाशविक प्रवृतियों का नियन्त्रणकर्ता | यह भगवान शिव का एक नाम तथा स्वाधिष्ठान चक्र का एक गुण भी है | पौराणिक मान्यता के अनुसार पशुपति पूर्णत: अचेतन हैं | मानव विकास के प्रथम स्तर पर यह मूलाधार चक्र तथा पाशविक प्रवृतियों का नियन्त्रणकर्ता है |
जब शक्ति स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश करती है तो हमारे अचेतन स्थिति का एक शक्तिशाली अनुभव होता है | मतलब अचेतन की चीजें उभर उभर कर सामने आने लगती हैं | अचेतन मन में संसार और कर्म बीज रूप में सुप्त पड़े रहते हैं |

आगे जारी है .....

स्वाधिष्ठान चक्र 2

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कुण्डलिन के स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होने पर सभी अवशेष कार्य और नकारत्मक संस्कार अभिव्यक्ति के माध्यम से बाहर निकल जाते हैं | इस समय क्रोध , डर , यौन विकृतियाँ तथा अनेक प्रकार की इच्छाएं प्रकट हो सकती है सभी प्रकार की तामसिक वृतियां तन्द्रा . अकर्मण्यता तथा निराशा आदि का प्रकटीकरण भी संभव है व्यक्ति आलसीपन का शिकार हो सकता है बहुत ज्यादा निद्रा से ग्रसित हो सकता है ( किन्तु इसका मतलब ये नहीं की आलसी और ज्यादा सोने वालों का स्वाधिष्ठान  चक्र जाग गया है ) | ऐसे समय में  विचलित होने की बात नहीं है | ऐसा समय  जब आवे तब मात्र साक्षी हो कर अपने भीतर के दुर्गुणों को देखना चाहिए कर्ता नहीं बनना चाहिए | इसलिए समय समय पर मैं ध्यान प्रयोग करने को कहता हूँ और तरह तरह का ध्यान विडियो के माध्यम से भी प्रेषित  करता रहता हूँ | खैर ..... प्रत्येक साधक व  संत को इस विशिष्ट अनुभूति के स्तर को जो  जीवन के रहस्यों के अंतिम विस्फोट की भाँती होता है इसे पार करना हीं पड़ता है | 

गुरु की कृपा , संकल्प शक्ति , अध्यात्मिक मार्ग में लगनशीलता , लक्ष्य के प्रति सजगता व  शोधक अनुभूतियों को ठीक से समझ कर  इस मार्ग की समस्याओं को झेला जा सकता है | और असावधानी होने पर डरने की बात नहीं सिर्फ होगा ये की कुण्डलिनी शक्ति फिर से मूलाधार चक्र पर आ जायेगी गिर कर | ऐसे स्थित में वैराग्य भाव बहुत मदद करता है | जैसे मन में संकल्प चलना चाहिए की आज तक भोगों को भोग कर तुमने क्या पाया और निष्कर्ष मन दिखा देता है की कुछ भी नहीं | इसलिए ऐसी  स्थिति में  तीव्र वासना का तूफ़ान जब आये तब वैराग्य भाव को मजबूत करें |
पुन : चर्चा होगी
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स्वाधिष्ठान चक्र

स्वाधिष्ठान चक्र 
संस्कृत में स्व का अर्थ होता है अपना और अधिष्ठान का अर्थ होता है रहने का स्थान | स्वाधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ हुआ अपने रहने का स्थान | मूलाधार के ठीक उपर का चक्र स्वाधिष्ठान चक्र है | कुछ कुण्डलिनी विद्वानों का मानना है कि पहले कुण्डलिनी स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित थी किन्तु बाद में मूलाधार में गिर गयी | प्राचीन काल सतयुग , त्रेता और द्वापर युगों के मनुष्यों की कुण्डलिनी स्वाधिष्ठान में थी | अब इसमें कितनी सच्चाई है ये पता नहीं किन्तु इस चक्र का नाम तो कुछ ऐसा हीं संकेत देता है | तो एक मान्यता यह भी है कि अगर कुण्डलिनी स्वाधिष्ठान पर पहुँच गयी हो तो पुन : मूलाधार पर भी आ सकती है | दैनिक जीवन और साधना में एकाएक खूब आनन्द और फिर दुःख का यह भी एक कारण है | देखो तुम साधना करो न करो किन्तु कुण्डलिनी तुम्हारे नित्य जीवन में अपने अनुभव देती रहती है जरूरत है जागरूक होने का | संगीत में तुम खूब तल्लीन हो सारा सुध बुध खो चुके हो तो उस घड़ी तक कुण्डलिनी मूलाधार पर फन उठा कर ( सजग हो कर ) कर स्वाधिष्ठान की ओर देख रही होती है और परिणाम आनन्द | अपने दैनिक जीवन में सजग होने पर ये अनुभूतियाँ मह्शूश की जा सकती है | अब कुछ अच्छे वक्ता है जिनको सुन कर जनता मुग्ध हो जाती है उस वक्त वक्ता का विशुद्धि चक्र सजग होने लगता है , ध्यान रहे स्वाधिष्ठान चक्र जाग नहीं जाता सिर्फ थोडा सजग होता है |
आगे इस पर और बातें करूँगा

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