Sunday 25 June 2017

रहस्यमयी हिमालय 17

सभी साधकों के सामने पंच मकार का रहस्य खुल रहा था  | संध्या ढल चुकी थी रात्री ने अपने पाँव आगे बढ़ा दिए थे | गुफा के अंदर मंद मंद स्वनिर्मित पिला  प्रकाश बिखरा हुआ था | सम्पूर्ण गुफा में कभी चन्दन  कभी मोगरे की तो कभी गुलाब की खुशबू की लहर थोड़े थोड़े समय पर फ़ैल जाती थी |
महायोगी अभेदानन्द ने कहा
“ अच्छा आओ तुम सभी को कुछ दिखाता हूँ | यहाँ उपस्थित सभी व्यक्ति एक दुसरे का हाथ पकड लो फिर मुझे और स्वामी ब्रह्मानन्द को चारो तरफ से  घेर कर बैठ जाओ और आँखें बंद कर  लो |”
कुछ हीं क्षणों में सबने देखा कि वे जिस अवस्था में बैठे हुए थे उसी अवस्था में धरती के उपर उंचाई पर  हैं और अपने आप को सभी वायु के सामान हल्का मह्शूश कर रहें हैं |
सभी ने पाया की वे जिस जगह पर उपर अवस्थित हैं वहां से गंगा नदी में प्रकाश की झिलमिलाहट नजर आ रही थी  | चिताओं के जलने की लपट भी स्पष्ट नजर आ रही थी | उन्होंने देखा चिताओं के अगल बगल में कुछ लोग खड़े हैं कुछ चिताओं को जलाने की कोशिश कर रहें हैं | विचित्र बात ये थी की चिताओं के नजदीक कुछ मानव आकृतिनुमा श्वेत  धुंए के समान आकृतियाँ चिताओं के उपर चिताओं के चारो तरफ मंडरा रही थी |
योगी बाबा ने सबों को संबोधित करते हुए कहा
“अभी हम इस पृथ्वी के सबसे प्राचीन और पवित्र  नगरी काशी के उपर हैं और जो चिताएं तुम देख रहे हो वे मणिकर्णिका घाट तथा हरिश्चन्द्र घाट पर जल रहें हैं | ये काशी नगरी शिव को अत्यंत प्रिय है | यहाँ शिव निवास करते हैं |
तभी एक साधक ने पूछा
“ वहां निचे एक ख़ास स्थान से चांदी के समान हल्का प्रकाश निकल कर चारो तरफ बिखर रहा है ये क्या है |”
योगी बाबा ने कहा
“ वो जो तुम प्रकाश देख रहे वह जहाँ से निकल रहा है वहीँ बाबा काशी विश्वनाथ का प्रसिद्ध  शिवलिंग स्थापित है और वहां से निकल कर प्रकाश सर्वत्र बिखर रहा है | तुम सभी रात्री में उपर से मेरे यौगिक शक्ति के प्रवाह के कारण ये देख पा रहे हो | ये दृश्य सिर्फ सिद्ध साधकों के द्वारा या जिन पर सिद्ध साधकों की कृपा होती है वही देखते हैं | कोई भी सिद्ध साधक उपर से ये प्रकाश भारत में स्थित बारह के बारहों शिव लिंग से निकलता हुआ देख सकता है | इसलिए इन्हें ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है | वैसे तो इस परम जागृत शिव लिंग के ऊर्जा का अहसाह काशी नगरी में प्रवेश करने वाला प्रत्येक आम व्यक्ति भी करता है | काशी में प्रवेश करते हीं विशेष उर्जा का स्पंदन सभी कोई मह्शूश कर सकता है |
एक और साधक ने पुन : एक  सवाल पूछा
“ वहां चिताओं के अगल बगल और उपर उडती हुई धुंए के  सामान मानव आकृतियाँ क्या हैं क्योंकि वे तो मानव प्रतित नहीं  होती |”
महायोगी अभेदानन्द के चेहरे पर एक मुस्कुराहट सी  दौड़ गयी | उन्होंने कहा
“ वे जो आकृतियाँ देख रहे हो वे उन्हीं चिताओं में जलते हुए लोगों की आत्माएं हैं | उन्हें  आत्मा  कहना भी उचित नहीं क्योंकि वे शरीर और आत्मा के बीच की कड़ी हैं | भेद सिर्फ इतना है कि उनका भौतिक शरीर अब नहीं है |  उनका शरीर और सगे सम्बन्धियों से  मोह कुछ ऐसा है कि मृत्यु के बाद भी अपने जलती हुई लाशों को देखने के वावजूद उस शरीर से मोह भंग नहीं हो रहा | वे वहां से तब तक नहीं हटेंगी जब तक की पूर्ण शरीर नहीं जल जाता | कुछ आत्माएं तो अपने सगे सम्बन्धियों के साथ अपने पूर्व के   घर तक भी जाते  हैं | किन्तु शरीर के अभाव  में  कोई चारा न चलते देख कर पुन : शरीर प्राप्ति हेतु पुनर्जन्म लेते हैं गर्भ में प्रवेश कर के एक नन्हे  शिशु के रूप में |”
रात्री के करीब दस बज रहें होंगे | घाटों की चहल पहल कुछ कम होती जा रही थी | हाँ किन्तु मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट पर देर रात घिरते हीं चहल पहल बढ़ रही थी |

*
जारी .....

रहस्यमयी हिमालय 16

दीक्षांत समारोह समाप्त हुआ
महायोगी अभेदानन्द ने बोलना प्रारम्भ किया
“ तंत्र कल्याण का विज्ञान है स्व कल्याण का | तन्त्र के माध्यम से योगी विभिन्न बिजमन्त्रों के द्वारा कुल कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार से उठा कर सहस्त्रार तक ले जाते हैं फिर सहस्त्रार  से पुन : मूलाधार पर ले आते हैं | तंत्र में पञ्च मकार सेवन का विधान है | ये पञ्च मकार हैं – मांस , मध् , मीन , मुद्रा और मैथुन |”
वहां उपस्थित सभी साधक बहुत हीं तल्लीनता से योगी बाबा की बातें सुनते हुए किसी दुसरे हीं लोक में खो गये थे ऐसी ओजस्विता थी उनकी वाणी में |
महायोगी ने आगे कहना प्रारम्भ किया |
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने|
पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:||
महायोगी ने रुद्रयामल तन्त्र का ये श्लोक सुनाया | फिर इसके बाद इसका अर्थ उन्होंने इस प्रकार बताया |
“जिह्वा मूल या तालू मूल में जिह्वाग्र ( जीभ का अगला भाग ) को सम्यकृत करके ब्र्ह्मारंध्र ( सिर के चोटी से ) से झरते हुए आज्ञा  (भ्रू मध्य ) चक्र  के चन्द्र मंडल से हो कर प्रवाहमान अमृतधारा को पान करने वाला मद्य साधक कहा जाता है |” 
 जिह्वाग्र ( जीभ का अगला  भाग ) को तालू में लगाना हीं खेचरी मुद्रा कहलाता है ( साधक बिना किसी योग्य गुरु के इस अभ्यास को न करें क्योंकि अमृत के साथ विष का भी स्त्राव उसी स्थान से होता है इसमें गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए )
यह वास्तविक मद्यपान कहलाता है |”
एक साधक ने पूछा
“ आज कल के साधक जो बाहरी  मदिरा पान करते हैं क्या ये उचित है मेरे प्रभु |”
महायोगी ने कहना प्रारम्भ किया
“ बाहरी मदिरा पान का भी एक साधक के दृष्टिकोण से महत्व है | कुण्डलिनी शक्ति के उर्ध्वगमन होने पर भारी मात्रा में उर्जा का बहाव शरीर में होता है जो कभी कभी सच्चे साधकों के लिए असहनीय हो जाता है इसी उर्जा के वेग का  प्रभाव कम मह्शूश हो इसलिए मदिरा के माध्यम से  मस्तिष्क को शिथिल करने के लिए यदा कदा उच्च किस्म के साधकों को मदिरापान करना पड़ता है | स्मरण रहे भोग के लिए मदिरापान करना पाप है | औषध रूप में इसका प्रयोग किया जाता है |
सभी तन्त्र साधकों को ये स्मरण रखना चाहिए देखा देखी बिना सोचे समझे तन्त्र मार्ग का हावाला दे कर कभी भी मदिरापान न करें हाँ जब साधना के क्रम  में आवश्यकता मह्शूश हो तब गुरु आज्ञा से हीं बाहरी मदिरा का पान करें |
किन्तु फिर भी साधक को ये प्रयास करना चाहिए कि बाहरी मदिरापान की आवश्यकता न हीं पड़े |
वास्तविक मदिरापान तो ब्रह्मारन्ध्र से गिरते हुए  अमृत को पीना हीं है इस मदिरापान के आनन्द को वर्णन नहीं किया जा सकता |”
योगी बाबा ने समझाया |
आगे योगी बाबा ने कहा
“ आम व्यक्ति एवं सभी जीवों में  जो अमृत ब्रह्मरन्ध्र के बिंदु से  क्षरित होता है वही मूलाधार में आ कर काम उर्जा का निर्माण करता है जिससे सृष्टि के सृजन का कार्य होता है | किन्तु हमारे पूर्वज योगियों ने ध्यान के द्वारा अपने स्वयं के शरीर में प्रवेश कर इसके मर्म को इसके विज्ञान को समझा और युक्तिपूर्वक  एक नए विज्ञान का आविष्कार किया | योगियों के स्व साधना के क्षेत्र में जो भी अविष्कार हुए वे सभी ध्यान की गहरी अवस्था में हुए इसलिए वर्तमान विज्ञान को इसे पकड पाना कठिन है |”
महा योगी के इस ओजमयी ज्ञान का पान वहां उपस्थित सभी साधक तल्लीनता पूर्वक कर रहे थे |  

रहस्यमयी हिमालय - 15

हिमालय का दिव्य वातावरण | चारो  तरफ  बर्फ  से  ढके ऊँचे  ऊँचे  पर्वत | चारो  तरफ  की  हवाओं  में  एक  दिव्य  सुगंध  घुली  हुई | मंद मंद  बहता  समीर | कुल  मिलाकर  वातावरण  को  दिव्य  बना  रहे  थे  ऐसा  प्रतित  हो  रहा  था  जैसे मन  कह उठे   स्वर्ग  यही  तो  है  |
बर्फ  से आच्छादित एक पर्वत  में  स्वामी ब्रह्मानन्द  की गुफा | गुफा में एक  आसन  पर स्वामी  ब्रह्मानन्द  विराज  रहे  थे | गुफा  में  मंद  मंद प्रकाश  बिखरी हुई थी | शीत या उष्णता के प्रभाव से यह गुफा प्रभावित नहीं था ना तो वहां अत्यधिक ठंढ थी न हीं अत्यधिक गर्मी |  निचे विभिन्न आसन  बिछा कर  दस  बारह  साधक बैठे  हुए थे | स्वामी  ब्रह्मानन्द  उन  साधकों  के  साथ किसी  गहन विषय पर चर्चा कर रहे थे |
इसी  बीच  महायोगी अभेदानन्द ने  साधक  सच्चिदानन्द , तरुण  साधक  बटुकनाथ  और उस व्यक्ति के साथ गुफा में  प्रवेश किया |
स्वामी ब्रह्मानन्द और महायोगी अभेदानन्द की प्रेमभरी  दृष्टि  आपस  में  टकराई  | दोनों  के  चेहरे  पर मुस्कान उभर  आई | दोनों  ने एक  दुसरे को सर झुका  कर और हाथ जोड़ कर एक दुसरे का  अभिवादन  किया | महायोगी  के  साथ  आये  साधकों ने स्वामी   ब्रह्मानन्द को  शाष्टांग  प्रणाम  किया  वहां  उपस्थित  साधकों  ने  भी  महायोगी  अभेदानन्द को साष्टांग प्रणाम  किया | स्वामी ब्रह्मानन्द  ने आसन  से  उठ कर महायोगी  को  अपने  आसन पर  बगल  में  बैठने  का अनुरोध  किया | महायोगी  उनके  बगल  में  विराजमान  हो  गये  | सभी  साधकों  ने  भी  निचे  अपने अपने स्थान को  ग्रहण  कर  लिया  |
स्वामी ब्रह्मानन्द  ने उस  व्यक्ति  पर  मुस्कुराते  हुए  दृष्टिपात  किया | उनके  चेहरे  पर ऐसे भाव थे  मानो  वे  पूर्व  से हीं उस व्यक्ति  को  जानते  हों |
महायोगी अभेदानन्द   स्वामी ब्रह्मानन्द की ओर  उन्मुख  होते हुए बोल पड़ें
“ कहें  कैसे  याद  किया |”
“कुछ नहीं प्रभु  ये सभी तन्त्र  के  साधक  हैं  और तंत्र  के  क्षेत्र  में  दस  वर्ष  साधना की है | आगे तन्त्र में  और  गहन यात्रा  हेतु ,तन्त्र के  द्वारा परमज्ञान   प्राप्ति हेतु महाविद्या  तारा  और  महाविद्या  बगलामुखी की दीक्षा लेना  चाहते  हैं  | किन्तु मुझे  इनकी प्रकृति  समझ  में नहीं  आ रही इसलिए  इन्हें  दीक्षित नहीं कर पा रहा  | इस  सम्बन्ध मे  मेरा मार्गदर्शन करें |” स्वामी ब्रह्मानन्द  ने कहा |
महायोगी अभेदानन्द  ने उन  साधकों  पर  दृष्टिपात किया और   आँखे  बंद  कर के गहन ध्यान में  चले  गये |
स्वामी ब्रह्मानन्द और  वहां उपस्थित सभी  साधक  यहाँ तक की  वह  व्यक्ति  भी ध्यान की मुद्रा  में  आ गया  और  ध्यान करने लगे | ( जो  ध्यान  में सिद्धस्त  हो  उसके  निकट  बैठ  कर  मात्र  ध्यान  का  अभिनय  भी  अगर  कोई  करे  तो सहज  हीं  बिना  प्रयास  के  ध्यान  लगने  लगता  है  बस  ध्यान  की  ईच्छा  होनी  चाहिए  )
घंटों  ध्यान के उपरान्त महायोगी अभेदानन्द ने   ने आँखें  खोली | उनके साथ ध्यान  कर  रहे  साधकों का  भी स्वत: आँखें खुल गयी | ( अगर  आप  किसी  के  सान्निध्य  में ध्यान  कर रहें  हो  तो ऐसा  होता  है जिसके सान्निध्य में  आप  ध्यान  कर  रहें  है  वे  अगर  ध्यान  से  बाहर आते  हैं  तब उसी समय  आप भी ध्यान  से बाहर  आते  हैं 90 % मामलों  में | शेष  10 % मामलों  में ऐसा  नहीं  होता  बल्कि आगे  भी  ध्यान  जारी  रहता  है  अगर  ध्यानकर्ता  सिद्धस्त  हो  तब | )
आगे  माहयोगी  ने फिर  से उन  साधकों का निरिक्षण किया और उनमे से तीन  साधकों के तरफ इशारा करते हुए कहा
“ ये तीन आगे गति नहीं कर पायेंगे इनके कर्म कटने अभी बाकी हैं इन्हें और साधना  की आवश्यकता  है | ये तीन अभी  दीक्षा  के  काबिल  नहीं  हैं |”
“ जी  महराज  जी इन तीनों  में  से एक  की  प्रकृति  तो  मुझे  पकड  में  आ रही  थी  किन्तु  इन  दोनों के  बारे  में  आश्वस्त  नहीं  था ध्यान  में  इनकी सूक्ष्म प्रकृति अयोग्यता के संकेत अवश्य  दे रहे थे किन्तु  थोडा अस्पष्ट था | इसलिए  आपको  कष्ट  दिया |” स्वामी ब्रह्मानन्द  ने  कहा |

कुछ समय उपरान्त स्वामी ब्रह्मानन्द के द्वारा महायोगी अभेदानन्द के समक्ष शेष नौ साधकों को दीक्षित किया गया जिसमे से पांच को बगलामुखी महाविद्या की दीक्षा दी गयी शेष चार  को महाविद्या तारा की |