Monday 29 October 2012

कुण्डलिनी शक्ति


यह लेख जानकारी मात्र के लिए है |
मूलाधार-चक्र
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मूलाधार-चक्र वह चक्र है जहाँ पर शरीर का संचालन वाली कुण्डलिनी-शक्ति से युक्त मूलआधारित अथवा स्थित है। यह चक्र शरीर के अन्तर्गत गुदा और लिंग मूल के मध्य में स्थित है जो अन्य स्थानों से कुछ उभरा सा महसूस होता है। शरीर के अन्तर्गत मूल’, शिव-लिंग आकृति का एक मांस पिण्ड होता है, जिसमें शरीर की संचालिका शक्ति रूप कुण्डलिनी-शक्ति साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई शयन-मुद्रा में रहती है। चूँकि यह कुण्डलिनी जो शरीर की संचालिका शक्ति है और वही इस मूल रूपी मांस पिण्ड में साढ़े तीन फेरे में लिपटी रहती है इसी कारण इस मांस-पिण्ड को मूल और जहाँ यह आधारित है, वह मूलाधार-चक्र कहलाता है।
मूलाधार-चक्र अग्नि वर्ण का त्रिभुजाकार एक आकृति होती है जिसके मध्य कुण्डलिनी सहित मूल स्थित रहता है। इस त्रिभुज के तीनों उत्तंग कोनों पर इंगला, पिंगला और सुषुम्ना आकर मिलती है। इसके अन्दर चार अक्षरों से युक्त अग्नि वर्ण की चार पंखुणियाँ नियत हैं। ये पंखुणियाँ अक्षरों से युक्त हैं वे , , , व । यहाँ के अभीष्ट देवता के रूप में गणेश जी नियत किए गए हैं। जो सा
धक साधना के माध्यम से कुण्डलिनी जागृत कर लेता है अथवा जिस साधक की स्वास-प्रस्वास रूप साधना से जागृत हो जाती है और जागृत अवस्था में उर्ध्वगति में जब तक मूलाधार में रहती है, तब तक वह साधक गणेश जी की शक्ति से युक्त व्यक्ति हो जाता है।
जब साधक-सिद्ध व्यक्ति सिद्धियों के चक्कर अथवा प्रदर्शन में फँस जाता है तो उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी से अधोमुखी होकर पुनः शयन-मुद्रा में चली जाती है जिसका परिणाम यह होता है की वह सिद्ध-साधक सिद्धि का प्रदर्शन अथवा दुरुपयोग करते-करते पुनः सिद्धिहीन हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह उर्ध्वमुखी यानि सिद्ध योगी तो बन नहीं पाता, सामान्य सिद्धि से भी वंचित हो जाता है। परन्तु जो साधक सिद्धि की तरफ ध्यान न देकर निरन्तर मात्र अपनी साधना करता रहता है उसकी कुण्डलिनी उर्ध्वमुखी के कारण ऊपर उठकर स्वास-प्रस्वास रूपी डोरी (रस्सी) के द्वारा मूलाधार से स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँच जाती है।

स्वाधिष्ठान-चक्र  
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यह वह चक्र है जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है। स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं। यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, , , , , ब । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है। तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार रूप में अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है। यदि थोड़ी सी भी असावधानी हुई तो चमत्कार और अहंकार दोनों में फँसकर बर्बाद होते देर नहीं लगती क्योंकि अहंकार वष यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त होते देर नहीं लगती है। इसलिए सिद्धों को चाहिए कि सिद्धियाँ चाहे जितनी भी उच्च क्यों न हों, उसके चक्कर में नहीं फँसना चाहिए लक्ष्य प्राप्ति तक निरन्तर अपनी साधना पद्धति में उत्कट श्रद्धा और त्याग भाव से लगे रहना चाहिए।

मणिपूरक-चक्र
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नाभि मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अन्तर्गत मणिपूरक नामक तीसरा चक्र है, जो दस दल कमल पंखुनियों से युक्त है जिस पर स्वर्णिम वर्ण के दस अक्षर बराबर कायम रहते हैं। वे अक्षर , , , , , , , , ढ एवं ड हैं। इस चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी हैं। जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूप साधना में लगा रहता है उसी की कुण्डलिनी-शक्ति मणिपूरक-चक्र तक पहुँच पाती है आलसियों एवं प्रमादियों की नहीं। मणिपूरक-चक्र एक ऐसा विचित्र-चक्र होता है; जो तेज से युक्त एक ऐसी मणि है, जो शरीर के सभी अंगों-उपांगों के लिए यह एक आपूर्ति-अधिकारी के रूप में कार्य करता रहता है। यही कारण है कि यह मणिपूरक-चक्र कहलाता है। नाभि कमल पर ही ब्रह्मा का वास है। सहयोगार्थ-समान वायु - मणिपूरक-चक्र पर सभी अंगों और उपांगों की यथोचित पूर्ति का भार होता है। इसके कार्य भार को देखते हुये सहयोगार्थ समान वायु नियत की गयी, ताकि बिना किसी परेशानी और असुविधा के ही अतिसुगमता पूर्वक सर्वत्र पहुँच जाय। यही कारण है कि हर प्रकार की भोग्य वस्तु इन्ही के क्षेत्र के अन्तर्गत पहुँच जाने की व्यवस्था नियत हुई है ताकि काफी सुविधा-पूर्वक आसानी से लक्ष्य पूर्ति होती रहे।
मणिपूरक-चक्र के अभीष्ट देवता ब्रह्मा जी पर ही सृष्टि का भी भार होता है अर्थात गर्भाशय स्थित शरीर रचना करना, उसकी सामग्रियों की पूर्ति तथा साथ ही उस शरीर की सारी व्यवस्था का भार जन्म तक ही इसी चक्र पर रहता है जिसकी पूर्ति ब्रह्मनाल (ब्रह्म-नाड़ी) के माध्यम से होती रहती है। जब शरीर गर्भाशय से बाहर आ जाता है तब इनकी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।


अनाहत्-चक्र
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हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से सुशोभित चक्र ही अनाहत्-चक्र है। जिन द्वादश(१२) अक्षरों की बात काही जा रही है वे , , , , , , , ड़, , , ख और क हैं। इस के अभीष्ट देवता श्री विष्णु जी हैं। अनाहत्-चक्र ही वेदान्त आदि में हृदय-गुफा भी कहलाता है, जिसमें ईश्वर स्थित रहते हैं, ऐसा वर्णन मिलता है। ईश्वर ही ब्रह्म और आत्मा भी है।

क्षीर सागर सागर का अर्थ अथाह जल-राशि से होता है और क्षीर का अर्थ दूध होता है। इस प्रकार क्षीर-सागर क अर्थ दूध का समुद्र होता है। इसी क्षीर-सागर में श्री विष्णु जी योग-निद्रा में सोये हुये रहते हैं। नाभि-कमल स्थित ब्रह्मा जी जब अपनी शरीर रचना की प्रक्रिया पूरी करते हैं उसी समय क्षीर सागर अथवा हृदय गुफा अथवा अनाहत् चक्र स्थित श्री विष्णु जी अपनी संचालन व्यवस्था के अन्तर्गत रक्षा व्यवस्था के रूप में आवश्यकता अनुसार दूध की व्यवस्था करना प्रारम्भ करने लगते हैं और जैसे ही शरीर गर्भाशय से बाहर आता है वैसे ही माता के स्तन से दूध प्राप्त होन
े लगता है और आवश्यकतानुसार दूध उपलब्ध होता रहता है। यहाँ पर कितना दूध होता है, उसका अब तक कोई आकलन नहीं हो सका है। सन्तान जब तक अन्नाहार नहीं करने लगता है, तब तक दूध उपलब्ध रहता है, इतना ही नहीं जितनी सन्तानें होंगी सबके लिए दूध मिलता रहेगा। ऐसी विधि और व्यवस्था नियत कर दी गयी है। दूसरे शब्दों में ब्रह्मा जी का कार्य जैसे ही समाप्त होता है, श्री विष्णु जी का कार्य प्रारम्भ हो जाता है और श्री विष्णु जी का कार्य जैसे ही समाप्त होता है, शंकर जी का कार्य वैसे ही प्रारम्भ हो जाता है। माता के दोनों स्तनों में तो क्षीर (दूध) रहता है परन्तु दोनों स्तनों के मध्य में ही हृदय-गुफा अथवा अनाहत्-चक्र जिसमें श्री विष्णु जी वास करते हैं, होता है। अर्थात् जो क्षीर-सागर है, वही हृदय गुफा है और जो हृदय गुफा है वही अनाहत्-चक्र है और इसी चक्र के स्वामी श्री विष्णु जी हैं।


विशुद्ध-चक्र
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कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, , , , , , , लृ, , , , , अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं।
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।

आज्ञा-चक्र
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भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।


ध्यान केन्द्र और दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख
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ध्यान केंद्र
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शंकर जी से लेकर वर्तमान कालिक जितने भी योगी-महात्मा, ऋषि-महर्षि आदि थे और हैं, चाहे वे योग-साधना करते हों या मुद्राएँ, प्रत्येक के अन्तर्गत ध्यान एक अत्यन्त आवश्यक योग की क्रिया है जिसके बिना सृष्टि का कोई साधक-सिद्ध, ऋषि-महर्षि, योगी, अथवा सन्त-महात्मा ही क्यों न हो आत्मा को देख ही नहीं सकते अथवा आत्मा का दर्शन या साक्षात्कार हो ही नहीं सकता है। दूसरे शब्दों में योग-साधना के अन्तर्गत ध्यान का वही स्थान है जो शरीर के अन्तर्गत आँखका। जिस प्रकार शरीर या संसार को देखने के लिए सर्वप्रथम आँख का स्थान है उसी प्रकार आत्मा-ईश्वर-ब्रह्म को देखने और पहचानने के लिए ध्यान का स्थान है। ध्यान का केंद्र आज्ञा-चक्र ही होता है। यही स्थान त्रिकुटि-महल भी है।
योगी-साधकों के आदि प्रणेता श्री शंकर जी कहलाते हैं। योग-साधना की क्रियाओं अथवा मुद्राओं का सर्वप्रथम शोध शंकर जी ने ही किया था। ध्यान आदि मुद्राओं के सर्वप्रथम शोधकर्ता होने के कारण ही सोsहं के स्थान पर कुछ योगी-महात्मा शिवोsहं तथा मूलाधार स्थित मूल शिवलिंग और शम्भू भी हंस स्वरूप ही कहलाने लगे।

दिव्य-दृष्टि अथवा तीसरी आँख
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दिव्य-दृष्टि वह दृष्टि होती है जिसके द्वारा दिव्य-ज्योति का दर्शन किया जाता है| दिव्य-दृष्टि को ही ध्यान केंद्र भी कहा जाता है। शरीर के अन्तर्गत यह एक प्रकार की तीसरी आँख भी कहलाती है। इसी तीसरे नेत्र वाले होने के कारण शंकर जी का एक नाम त्रिनेत्र भी है। यह दृष्टि ही सामान्य मानव को सिद्ध-योगी, सन्त-महात्मा अथवा ऋषि-महर्षि बना देती है बशर्ते कि वह मानव इस तीसरी दृष्टि से देखने का भी बराबर अभ्यास करे। योग-साधना आदि क्रियाओं को सक्षम गुरु के निर्देशन के बिना नहीं करनी चाहिए अन्यथा विशेष गड़बड़ी की सम्भावना बनी रहती है।


सहस्रार-चक्र
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सहस्र पंखुणियों वाला यह चक्र सिर के उर्ध्व भाग में नीचे मुख करके लटका हुआ रहता है, जो सत्यमय, ज्योतिर्मय, चिदानंदमय एवं ब्रह्ममय है, उसी के मध्य दिव्य-ज्योति से सुशोभित वर और अभय मुद्रा में शिव रूप में गुरुदेव बैठे रहते हैं। यहाँ पर गुरुदेव सगुण साकार रूप में रहते हैं। सहस्रार-चक्र में ब्रह्ममय रूप में गुरुदेव बैठकर पूरे शरीर का संचालन करते हैं। उन्ही के इशारे पर भगवद् भक्ति भाव की उत्प्रेरणा होती है। उनके निवास स्थान तथा सहयोग में मिला हुआ दिमाग या मस्तिष्क भी उन्ही के क्षेत्र में रहता है जिससे पूरा क्षेत्र एक ब्रह्माण्ड कहलाता है, जो शरीर में सबसे ऊँचे सिर उसमें भी उर्ध्व भाग ही ब्रह्माण्ड है। योगी-यति, ऋषि-महर्षि अथवा सन्त-महात्मा आदि जो योग-साधना तथा मुद्राओं से सम्बंधित होते हैं, वे जब योग की कुछ साधना तथा कुछ मुद्रा आदि बताकर और कराकर गुरुत्व के पद पर आसीन हो जाते हैं उनके लिए यह चक्र एक अच्छा मौका देता है, जिसके माध्यम से गुरुदेव लोग जितने भी योग-साधना वाले हैं अपने साधकों को पद्मासन, स्वास्तिकासन, सहजासन, वीरासन आदि आसनों में से किसी एक आसान पर जो शिष्य के अनुकूल और आसान पड़ता हो, पर बैठा देते हैं और स्वांस-प्रस्वांस रूप प्राणायाम के अन्तर्गत सोsहं का अजपा जाप कराते हैं। आज्ञा-चक्र में ध्यान द्वारा किसी ज्योति को दर्शाकर तुरन्त यह कहने लगते हैं कि यह ज्योति ही परमब्रह्म परमेश्वर है जिसका नाम सोsहं तथा रूप दिव्य ज्योति है। शिष्य बेचारा क्या करे ? उसको तो कुछ मालूम ही नहीं है, क्योंकि वह अध्यात्म के विषय में कुछ नहीं जानता। इसीलिए वह उसी सोsहं को परमात्मा नाम तथा ज्योति को परमात्मा का रूप मान बैठता है। खेचरी मुद्रा से जिह्वा को जिह्वा मूल के पास ऊपर कण्ठ-कूप होता है जिसमें जिह्वा को मूल से उर्ध्व में ले जाकर क्रिया कराते हैं, जिसे खेचरी मुद्रा कहते हैं, इसी का दूसरा नाम अमृत-पान की विधि भी बताते हैं। साथ ही दोनों कानों को बंदकर अनहद्-नाद की क्रिया कराकर कहा जाता है कि यही परमात्मा के यहाँ खुराक है, जिससे अमरता मिलती है और यही वह बाजा है जो परमात्मा के यहाँ सदा बजता रहता है। योग की सारी जानकारी तो आज्ञा-चक्र में आत्मा से मूलाधार स्थित जीव पुनः मूलाधार स्थित जीव से आज्ञा-चक्र स्थित आत्मा तक ही होती है।

Monday 13 August 2012

वर्तमान युग और तुलसीदास की प्रसांगिकता - 2




गोस्वामी तुलसीदास की बहुत फजीहत हुई है उनके जीवन काल में भी और अब भी हो रही | वर्ना तुलसीदास जी की  लेखनी ने वर्तमा  की समस्यायों का भी हल भी चुटकी में सुझाया है आवश्यकता उनको ठीक से मनन चिंतन करने की  है | आईये उन पर आरोप प्रत्यारोप लगाने की वजाय उन पर पुन : विचार करें |
गोस्वामी जी ने  बाल कांड में कहा है "बंदऊँ संत असज्जन चरना | दुःख प्रद उभय बिच कछु बरना || बिछुरत एक प्राण हरि लेंहीं | मिलत एक दुःख दारुण देंही || अर्थात इसका अर्थ कुछ इस प्रकार है |मैं संत और असंत दोनों की बंदना  करता हूँ , दोनों हीं दुःख के कारण  बनतें हैं |तुलसीदास जी ने दोनों की वंदना की है ये उनकी उदारता है | एक के बिछुड़ने से प्राण हरण होता है | दुसरे के मिलते हीं भारी कष्ट होता है | तुलसीदास जी ने कहा है "   बिछुरत एक प्राण हरि लेंहीं " अब कोई इस पंक्ति का तिल का ताड़ बनाने लगे की उन्होंने (तुलसीदास ) कहा संतो के बिछुड़ने पर प्राण निकल जातें हैं , अर्थात मौत हो जाती है | लेकिन व्याहारिक जीवन में तो ऐसा देखने में नहीं मिलता है |और अर्थ का अनर्थ करने वाले ये भी कहेंगे तुलसीदास जी ने  संत कहा ,  इसके उदाहरण  में दो चार भ्रष्ट बाबाओं को संत बता  देंगे  की इनके बिछुड़ने पर कहाँ कोई तकलीफ होती है | प्रिय संत अगर कोई बिछुड़े  न तो वास्तव में प्राण हरण हो जाता है उदाहरनार्थ, प्रसिद्ध संत निज्जमुद्दीन औल्लिया के मृत्यु के बाद आमिर खुसरो ने शोक  से  अपने वस्त्र फाड़ दिए और कुछ दिन के बाद उनकी मृत्यु हो गयी | कहाँ जी पाइएगा  किसी प्रिय संत के बिछुड़ने पर, अगर कोई जीता रह गया तो दोष खुद में हीं है अब संत कौन है ये कैसे जाने हालाकि अनुभव के आधार पर ज्ञात हो हीं जाता है फिर भी तुलसीदास जी ने उन्हें भी जानने की व्यवस्था कर दी है |
तुलसीदास जी ने संतो के लक्षण भी नारद के मुख से कहलवाए हैं अरण्यकाण्ड के आखिर में | उसमे से कुछ यहाँ उधृत करना चाहूँगा | बिरती बिबेक बिनय बिग्याना |बोध जथारथ बेद पुराना || दंभ मान मद करहिं ना काऊ | भूली न देहि कुमारग पाऊ | संतो को विरक्ति युक्त , विवेकी ,विनयशील तथा परमात्मा के ज्ञान से युक्त पाइएगा  | यहाँ विज्ञानं का अर्थ परमात्मा के प्राप्ति का विज्ञान से है | जी हाँ परमात्मा की प्राप्ति में  भी विज्ञान सहायक है |  आज कल वैज्ञानिकों के मुंह से यदा कदा God particle (ईश्वरीय तत्व) के बारे सुना जाता है आखिर में विज्ञान भी परमात्मा तक हीं पहुंचेगा | और संतो को वेद पुराणों का वास्तविक ज्ञान होता है | ध्यान रहे तुलसी दास ने यहाँ जथारथ शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ है वास्तविक ज्ञान ! थोथा ज्ञान नहीं ( पंडित कठमुल्लों वाला तोंता रटंत ज्ञान नहीं )संत अभिमानी नहीं होता , और भूल कर कुमार्ग अर्थात गलत मार्ग पर नहीं जाता
 संत असंत की बात मैंने इसीलिए उठाई क्योंकि समाज में दोनों का वर्चस्व है | यहाँ प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर संत और असंत छिपा  हुआ है | आवश्यकता है अपने भीतर के  संतत्व को पहचानने की  |और कभी भ्रम हो तो तुलसीदास जी ने रामचरितमानस रूपी आइना दे हीं दिया  है  जब इच्छा हो निकाल  कर देख लें | 
आगे इस विषय पर  आपकी रूचि और उत्कंठा देख कर पुन : उपस्थित होऊंगा अन्यथा नहीं | 
सप्रेम आपका सत्येन्द्र कुमार 

 बिरति =बिरक्ति (वैराग्य ), बिबेक =विवेक ,बिनय =विनय बिग्याना= विज्ञानं , बोध (अहसास  ),जथारथ =यथार्थ (वास्तविक ) दंभ ,मान , मद = अभिमान (अहंकार  ) कुमारग = गलत रास्ता |


Wednesday 8 August 2012

चैतन्य मन


चैतन्य मन

मन की रेशमी जाल में फंसा हुआ हूँ  मैं
जहाँ ममता , करुणा , दया ,
और न जाने कितने भाव ,
मंद शीतल समीर की नाई
आतें हैं |
शीतलता की फुहार दे कर न जाने कहाँ
चले जाते हैं
और मैं उनकी अतीत की यादों में
पुलकता ,तडपता रहता हूँ |
और हाँथ कुछ भी नहीं आता |
क्रोध , वासना , लालच , घृणा  के दानव भी
विकराल अग्नि से उतप्त 
आतें हैं |
और कलुषिता , द्वेष और  अजीब सी वेचैनी दे कर
चले जातें हैं |
किन्तु मेरा इनसे कोई नाता नहीं ,
मैं तो परम शून्य में आनंद पाता हूँ |
उस महामहिम परम सताधीस के आगोश में
खो जाता हूँ |
हाँ वहां "मैं" नहीं होता |
वहां कुछ भी नहीं होता
और सब कुछ होता है |

-आपका  सत्येन्द्र 

Thursday 5 July 2012

हम शेर के बच्चे हैं


हम शेर के बच्चे हैं

आदमी को जब हताशा और निराशा का क्षण घेर ले जब कोई मार्ग न दिखे ,जब कोई साथ न दे तो अकेले हीं चलना चाहिए और अपने भीतर की अवाज  को पहचान कर उसी मार्ग पर चलना चाहिए | नीरेंद्र जी के ब्लॉग का शीर्षक  एकला चलो रे यह गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर के एक गीत की पंक्ति हैं जो हताशा और निराशा के क्षणों में संजीवनी शक्ति का कार्य करती है |
आदमी कभी कभी काफी हताश और निराश हो जाता है ,कोई मार्ग नहीं दिख पाता तब खुद के शरण में आ जाना चाहिए | अपने भीतर डुबकी लगाने पर अनंत हीरे मोती या यूँ कहें अकूत खज़ाना हाँथ लगता है | सारा मार्ग प्रशस्त हो जाता है निराशा के बादल छंट  जाते हैं | बस जरुरत है अपने भीतर उतरने की प्रकाशित मार्ग दिखाई देगा |
उपनिषदों के ब्रह्म वाक्य तत्वमसि का  स्मरण करें | तत्वमसि अर्थात तुम वही हो यानी परमात्मा यह वाक्य काफी आश्वासन देता है एक बल देता है | हालाकि सिर्फ इस वाक्य का स्मरण एक सुखद कल्पना में ले जाता है , लेकिन आनंद तब आये जब यह  ब्रह्म वाक्य अनुभव में उतर जाए |
विवेकानंद ने एक कहानी का जिक्र बार बार किया है | एक शेर का बच्चा अपने झुण्ड से बिछड जाता है और भेंड़ों के झुण्ड में जा मिलता है | उसका लालन पालन भेंड़ों की तरह होता है और उसमे भेंड के सारे गुण आ जातें हैं | एक दिन उस भेंड़ों के झुण्ड पर एक शेर आक्रमण कर देता है सारे भेंड अपनी जान ले कर भागतें  हैं | शेर का बच्चा भी भागता है | शेर को यह सब देख कर मारे  आश्चर्य की उसकी आँखें फटी रह जाती है | वह भेंड़ों को छोड़ कर पहले शेर के बच्चे को पहले  दबोचता है | शेर का बच्चा मिमियाने लगता है | शेर उस बच्चे से पूछता है की भेंड तो भाग गए कोई बात नहीं लेकिन तुम क्यों भाग रहे हो ? शेर का बच्चा मिमियाने लगता है | शेर को बात समझ में आ जाती है ,पास हीं नदी बह रही होती है | शेर उस बच्चे का गर्दन पकड कर नदी में उसका छवि दिखाता है | शेर का बच्चा अपने को पहचान कर जोरदार गर्जन करता है | शेर को मारे खुशी के  आंसू छलक आतें हैं |
हम भटके हुए शेर के बच्चे हैं | समय समय पर कोई कृष्ण अपने गीता के माध्यम से हमें हम शेर हैं बताने आतें हैं | कोई  मोहमद अपने कुरान के माध्यम से ,कोई जीसस अपने बाइबल के माध्यम से ये बताता है कि हम शेर हैं और खुद को भेंड समझ बैठ हैं और जब हम खुद को पहचानतें हैं तो जितनी खुशी हमें होती है उतनी हीं खुशी किसी कृष्ण ,मोहमद या जीसस या किसी भी सद्गुरु को भी होती है  |
वर्तमान में भारत की जो  दुर्दशा यहाँ के भ्रष्टों ने ,अतितायिओं ने बना रखी है ऐसे में हमें अपने शेर होने का परिचय देना हीं होगा | हम शेर बन कर भ्रष्टों के गले दबोचे और एक एक चीज का हिसाब  मांगे  | हम शेर हैं और शेर की तरह जियें | हमारे नस नस में रक्त  की जगह लावा बह रही है | हम ऊर्जा और शक्ति के श्रोत हैं | हम ईश्वरपुत्र हैं यानी ईश्वर हीं हैं ऐसे भाव के साथ जियें |
    

वर्तमान युग और तुलसीदास की प्रसांगिकता - 1


वर्तमान युग और तुलसीदास की प्रसांगिकता  - 1
तुलसीदास जी ने अपनी लेखनी चलाई  है और खूब चलाई है | सवाल यह है की आज के युग में तुलसीदास जी कहाँ खड़े हैं | तुलसीदास जी पर यदा  कदा प्रश्न चिन्ह लगते रहें है और यह कहाँ तक सार्थक है | इस विषय पर अवश्य हीं बहस होनी चाहिए | आईये तुलसीदास जी पर विचार विमर्श करें तुलसीदास जी पर सबसे ज्यादा ब्राहमण वाद का पक्षधर होने का आरोप लगता है | गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस के बाल कांड में लिखतें है " बंदऊँ प्रथम महिसुर (मही =पृथ्वी , सुर = देवता ) चरणा |" अर्थात सर्वप्रथम  पृथ्वी के देवता ब्राहमण की बंदना करता हूँ  जरा रुकिए फिर दूसरी पंक्ति में कहते हैं ," मोह जनित संशय सब हरना || "  मतलब मोह से उत्पन्न सारे संशयों को जो दूर कर दे |लीजिये ब्राहमण की परिभाषा तुलसीदास जी ने सपस्ट कर दी जांच लीजिये कौन ब्राहमण है समाज में जो इस परिभाषा पर खरा उतरता है

दूसरा आरोप तुलसीदास पर निम्नलिखित पदों के कारण लगता है  " ढोल गंवार शुद्र पशु नारी | सकल ताड़ना के अद्धिकारी || अब ढोल को पीटने पर तो किसी को कोई आपति नहीं है , नहीं है न |फिर गंवारो की बारी आती है जिसके अन्दर जिव है उस किसी को पीटना मुनासिब नहीं यहाँ ताड़ना का अर्थ भय दिखा कर मार्ग पर लाने से है | और हाँ फिर भी बात न बने तो एकाध झापड़ लगाने से कोई गुरेज नहीं करेगा हाँ लेकिन एकाधे झापड़ ज्यादा नहीं | बच्चो को शिक्षक जैसे लगातें हैं लगातें है की नहीं ? हाँ अब ऐसा नहीं पिट देना चाहिए की उसकी जान पर बन आये | फिर बारी आती है शूद्र की  अभी ऊपर मैंने ब्राहमण की परिभाषा तुलसीदास  के अनुसार लिखा | ब्राहमण कौन जिनका मन मोह से जनित संसय युक्त न हो तो , शूद्र भी वही जिसका मन मोह जनित संसय से युक्त हो | पहले तो ये परिभाषा मन में अपने विवेक के द्वारा निष्कर्ष कर बिठा लेना चाहिए | यहाँ भी शूद्रों के लिए ताड़ना का अर्थ भी उपरोक्त  हीं होगा |  नारियों के सन्दर्भ में भी ताड़ना का अर्थ यही होगा लेकिन सवाल यह है की क्या सभी नारी ताड़ना का  अधिकारी है | नहीं   | और  फिर स्त्रियों के लिए क्यों कहा गया  पुरुष तो इस मामले में दो कदम आगे हैं हीं इनको तो कदम कदम पर ताड़ना की आवश्यकता है |  रामायण की पात्र मन्थरा और कैकेयी के बारे में आपका क्या ख्याल है | नारी जहाँ माँ के रूप में इश्वर का दर्जा पाती है वहीँ द्रौपदी  के रूप में महाभारत भी करा सकती है | नारी मन जरा हठी होता है खास कर पत्नी ,भाभी ,ननद ,सास के रूप में | आप लोगों को भी व्यक्तिगत जिंदगी में अनुभूति हुई होगी |बात सिर्फ स्त्रियों की हीं क्यों करें इस सन्दर्भ में क्योंकि स्त्री को हमने हमेसा सुह्रिद्या प्रेम और करुणा से ओत प्रोत पाया है | प्रथम साक्षात्कार स्त्री के रूप में माँ से होता है | जीवन  में आने वाली अन्य स्त्र्यिओं से भी हम ऐसा ही अपेक्षा कर लेतें है  और माँ जैसा व्यवहार न पाकर अपेक्षित मन किसी तुलसीदास का विद्रोह वश  ऐसा लिख देता है  आप कहेंगे तुलसीदास जी का माँ का निधन बचपन में हीं उनको जन्म देने के बाद हो गया था |अरे भाई !पत्नी से भी उन्होंने वैसा हीं माँ के जैसा प्रेम पाया था और बाद में प्रताड़ित  हुएँ थे  |  क्रमश :

Saturday 30 June 2012

क्या है ध्यान ?


 
 ध्यान !

आइये प्रेमपूर्वक सारे चिंताओं को भूला कर  ध्यान करें |  आज मैं सारे अन्य विषयों को छोड़ कर ध्यान की बात कर रहा हूँ | बाकी  सब विषय बेकार है क्योंकि वह किसी  अन्य से जुड़ा हुआ हैं ,और ध्यान है अपने आप  से जुडना | दूसरों के बारे में दिमाग खपा कर शांति नही मिलने वाली खुद के भीतर जा कर शांति मह्शूश होती है ,यह आप अपने अनुभव से जान सकते हैं

यह प्रयोग सारे धर्मो के अनुआयियों के लिए है संकोच न करें,इसे सभी कर सकते हैं क्योंकि असल में आदमी का कोई धर्म होता हीं नही कैसे ? मान लीजिए आप हिंदू के घर पैदा हुएं और लालन पालन किसी मुस्लिम के घर हुआ तब क्या होगा आपका धर्म ?असल में धर्म वही है जो खुद के भीतर ले जाये यह प्रक्रिया हमारे जीवन में बारम्बार होता है | अगर हम किसी मंदिर में जाते हैं और घंटियों की आवाज आपके कान में गूंजती है याद कीजिये उस क्षण को ! पांचो वक्त नमाज के वक्त मस्जिदों से गूंजती अल्लाह हो अकबर आपके कानो में जब पड़ती है तो कैसी अनुभूति होती है हमें तो बड़ा आनंद आता है | या फिर गिरिजाघरों में होती प्रार्थनाओं की आवाज अजीब सुकून देती है |या फिर गुरुवाणी के शबद अजीब शांति मह्शूश कराती है |अगर  आप ईमानदारी से इन क्रिया कलापों में भाग लेते होंगे तो उस क्षण आप खुद से या खुदा से जुड जाते हैं | किसी भी धर्म की प्रत्येक क्रिया जिसे आज आडम्बर भी कहते हैं बेकार नही है बड़े वैज्ञानिक ढंग से बनी हुई  प्रक्रियाएं  है जो उस धर्म के संस्थापकों (पैगम्बरों ) के अनुभव से आतीं  है और मकसद सिर्फ यही होता है की आप भी उस अनुभव से जुड जाये | आपके मन में किसी भी धर्म से सम्बंधित कोई भी आडम्बर के प्रति संदेह हो तो उसे कोमेंट के जरिये रखने की कोशिश करें | मै अपने अनुभव और ज्ञान के जरिए उनके   उतर देने की कोशिश करूँगा |

आइये प्रयोग करें | आँख बंद कर बैठ जाएँ  रीढ़ की हड्डी सीधी हो |ऐसे तो सोते वक्त भी कर सकते हैं लेकिन कोई तकलीफ न हो तो बैठ कर हीं करे  |सामने एक काला स्क्रीन (दृश्य पटल ) उभरेगा | थोड़ी देर उस अँधेरे को मह्शूश करें ईमानदारी से | सिर्फ और सिर्फ अँधेरे को मह्शूश करें | आपका मन गायब हो जायेगा मन तो अभी भी है वह अँधेरे को मह्शूश कर रहा है | लेकिन आपको सुकून मिलना शुरू हो जायेगा | गहरी साँस लीजिए और छोडिये आहिस्ता आहिस्ता कम से कम पांच बार सारे शरीर को ढीला छोड़ें शरीर में सनसनाहट मह्शूश करें|अब अपने मन को सांसो पर लगाये लगातार कम  से कम १० मिनट तक | सारा ध्यान सांसों पर हो | पुरे  मस्ती के साथ पुरे आनंद के साथ हौले हौले सांस ले | जब आनंद आने लगे तो समय बढ़ाते जाईये हाँ एक घंटा से ज्यादा न करें | उसके बाद का अनुभव ब्लॉग पर आ कर जरुर शेयर कीजियेगा |
आप कहेंगे एक और बाबा पैदा हो गया | बाबागिरी ना  बाबा ना कान पकड़ता हूँ |यह तो आपसे पुरे मानव जाती से प्रेम है इसलिए सत्य के सम्बन्ध में  अपने अनुभव बाँटना चाहता हूँ |

Tuesday 26 June 2012

प्रेम है जिसका स्वभाव वह है हिन्दू

प्रेम है जिसका स्वभाव वह है हिन्दू   


क्या है हिन्दू होने का मतलब , माथे पर तिलक लगाना ,हाँथ में सूता बंधना ,ढोगी बाबाओं से आशीर्वाद लेना, मंदिर जाना , जातिवाद का ढोंग फैलाना , अपनी संस्कृति को छोड़ कर पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण  करना  क्या यही है  हिंदुत्व ?

हिन्दू की परिभाषा

हिंदू शब्द कि उत्पति का इतिहास सिंधु नदी के नाम से जुड़ा हुआ है | प्राचीन काल में सिंधु नदी के पार के वासियों को इरान वासी हिंदू कहतें थें | वे का उच्चारण करते थे | हिंदू शब्द के जुड़ने के पहले यह धर्म सनातन धर्म कहलाता था |
सनातन मतलब शाश्वत या हमेशा बने रहने वाला होता है |
हिंदू कि परिभाषा क्या कि जाए , मेरे हिसाब से जिस धर्म के अनुआयी ब्रह्म  को जानतें हों हिंदू कहलाने के योग्य हैं | ब्रह्म यानी जहाँ तक अपनी कल्पना न जाए सिर्फ अनुभव हीं शेष रह जाए | पूर्ण शून्यता का अनुभव | ब्रह्म ज्ञान अर्थात अपने अहंकार को विस्तृत कर देना यानी परमात्मा में विसर्जित कर देना या यूँ कहें अपने अहंकार को समाप्त कर देना , अपने होने के आस्तित्व को भूला देना | ब्रह्म शब्द को परिभाषित नहीं किया जा सकता क्यों? क्योंकि इसके अंदर कल्पना का जगत तो आ हीं  जाता है कल्पनातीत जगत भी आ जाता है | ब्रह्म ज्ञान जैसा दुर्लभ ज्ञान अन्य किसी धर्म  में नहीं |
प्रेम है जिसका स्वभाव वह है हिन्दू   
जितने भी सच्चे  ब्रह्म ज्ञानी हुएं सबने प्रेम को महता दी है और सबने एक सुर में प्रेम को हीं परमात्मा के मार्ग में प्रथम सोपान बतलाया है | ब्रह्म को जानने वालों का कहना है ब्रह्म ज्ञानी मनुष्य  पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों से एकात्म मह्शूश करता है यानी सभी जीवों को अपना अंग समझता है , अपने से भिन्न नहीं समझता  पेड पौधें सभी से जुडाव मह्शूश करता है  | सबसे एकात्म मह्शूश करने वाला किसी को अपने से अलग न मानने वाला मनुष्य  सबसे प्रेम न करेगा भला |  
प्रेम के कारण था भारत कभी विश्व गुरु
अरे कुछ तो बात हो भारत के हिन्दूओं में ताकि विश्व के कोने कोने में बसे लोग यहाँ के हिन्दूओं के प्रेम से खींचे चलें आये और इनकी प्रेम गाथा पुरे विश्व में प्रसिद्ध हो | और प्रेम हीं ऐसा मंत्र है जिसकी बदौलत भारत फिर से एक बार सदा के लिए विश्व गुरु बन सकता है | प्राचीन काल में भारत विश्व गुरु क्यों था ? सम्पूर्ण विश्व के लोग यहाँ के ज्ञान के कारण यहाँ खींचे चले आते थें | प्राचीन काल में  शिक्षा का सर्वोच्च केन्द्र तक्षशिला ,नालंदा , विक्रमशिला विश्वविद्यालय  भारत में थें | कौन सा ज्ञान दिया जाता था यहाँ तत्व ज्ञान या कहें ब्रह्म ज्ञान | ब्रह्म ज्ञानी कौन जिसके नस नस में प्रेम दौड़े |
'जो भरा नहीं है भावों से
जिसमें बहती रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें मानव के लिए प्यार नहीं |'
-मैथली शरण गुप्त
नोट मूल पंक्ति में मानव के स्थान पर स्वदेश तथा के लिए के स्थान पर काशब्द का प्रयोग हुआ है |  यथा जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं


हिंदू था  ज्ञान का खान
ऐसा नहीं कि सिर्फ प्रेम के कारण विश्व गुरु था यह देश बल्कि एक से बढ़ कर वैज्ञानिक भी थे प्राचीन काल में | चौंकिए नहीं भारतीय ऋषि , मुनि, मनीषी क्या थे | एक से बढ़ कर एक विद्याओं के धनी थे ये लोग | आयुर्वेद ,सर्जन चिकित्सा ,रस सिद्धांत विज्ञान, सूर्य विज्ञान ,कुण्डलिनी विज्ञान, गणित का ज्ञान (शून्य का आविष्कार), पातंजली का योग सूत्र  और न जाने क्या क्या | क्या नहीं है हमारे पास हमारे वेदों उपनिषदों पुराणों में  | आज भी विदेश से लोग दुर्लभ ज्ञान के तलाश में भारत खिंचे चले आतें हैं | किन्तु रसातल में जा रहा है यह सब अपनी विद्याओं अपनी संस्कृति का इज्जत नहीं है दिल में पाश्चात्य संस्कृति के पीछे भागम भाग मचा हुआ है और छाती ठोंक कर कहेंगे कि हम हिंदू हैं |


हिंदुत्व प्रसिद्ध है अपनी संस्कृति ,अपने त्यौहार ,अपने संस्कारों, अपने शुद्धतम  खान पान, अपने आदर्श परिवारवाद ,अपने सर्वोच्च नैतिकता  के लिए | किन्तु दुखद अब इनका ह्रास होता जा रहा है |
पारिवारिक रिश्तों के लिए यह धर्म मिशाल था | पिता पुत्र का धर्म , माता पिता के लिए पुत्र का उतरदायी  होना , भाई भाई का प्रेम , इस धर्म कि खासीयत थी | अतिथि देवो भव: आदर्श वाक्य हुआ करता था कभी भारत में  |
हमें अपनी संस्कृति को पुन: स्थापित करना होगा अन्यथा पूरा  मनुष्य जाती एक दुर्लभ और अति मूल्यवान धरोहर  से वंचित रह जायेगी |