बाहर के
जगत से तो हम परिचित हैं हीं | अपना
स्वभाव हीं ऐसा है कि सिर्फ और सिर्फ बाहर हीं विचरण करते रहते हैं हम सभी | अस्सी
प्रतिशत बाहरी जगत से हम आँख के द्वारा परिचित होते हैं | यानी अधिकाँश आकर्षण आँख
के द्वारा हीं पैदा होता है | इसलिए ध्यान करने के पहले हमें आँख बंद करना होता है
| तब भीतर का जगत दीखता है थोडा सा | थोडा सा इसलिए क्योंकि फिर कल्पनाएँ हावी
होने लगती है खुद पर | आँख बंद हुआ नहीं की कल्पना का घोडा दौड़ना शुरू | कभी
भविष्य का ख्याली पुलाव पकाते हुए तो कभी
अतित को याद करते हुए | मन स्थिर होता हीं नहीं स्वभाव
हीं इसका ऐसा है स्थिर होगा भी कैसे | तो कोई युक्ति लगानी होगी और हम कह सकते हैं
यह युक्ति है ध्यान | ध्यान में मन को शरीर के भीतर भ्रमण करने का छूट दिया जाता
है |
कभी साँसों पर ध्यान केन्द्रित करना होता है तो कभी हृदय की धडकन पर | ध्यान
में शरीर के भीतर हो रहे रक्त संचरण को भी
सुना जा सकता है | तो मन शरीर में हो रही संवेदनाओं के प्रति सजग होने लगता है और
रहस्य खुलने लगते हैं | एक से एक कौतुक दिखते हैं बंद आँखों से शरीर के भीतर
किन्तु हम तो कभी शरीर के भीतर जाते हीं नहीं सिर्फ बाहर विचरण करते रहते हैं |
एक
के बाद एक रहस्यों से पर्दा उठता जाता है शरीर के भीतर विचरण करने पर और अंतत:
उसका दीदार होता है अरे भाई उसी का जो हम वास्तव में हैं परमात्मा कहें बड़े स्तर
पर या आत्मा कहें छोटे स्तर पर !
ये विडिओ आपके ध्यान लगाने में सहयोगी होगा
ये विडिओ आपके ध्यान लगाने में सहयोगी होगा
जय माँ प्रणाम घन्यवाद आपका
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