Thursday, 27 September 2018

पहले सगुण ध्यान क्यों

काफी लोगों का यह प्रश्न होता है कि आप ध्यान की विधियों में कल्पना करने को क्यों कहते हैं जबकि ध्यान का मतलब तो शून्यता होता है । तो सुनो बाप मेरे ये हमारा मन बहुत चंचल और चतुर है इसको इसी के रास्ते ठिकाने लगाना पड़ता है । यह मन हमेशा दृश्य उतपन्न करता है सुख के दृश्य दुःख के दृश्य हमेशा गतिमान रहना मन का स्वभाव है । तो ध्यान के दरम्यान भी हम इस मन को दृश्य उत्पन्न करने को कहते हैं फर्क यह होता है कि तब मन स्वतन्त्र रूप से दृश्य नहीं उतपन्न करता तब हमारे हिसाब से दृश्य उतपन्न करता है ।

 हम जैसा कहते हैं वैसे दृश्य सामने आता है । अंत मे क्या होता है मन को जब तक उन दृश्य में खोना होता तब तक खोया रहता है फिर मन चकरा जाता है कि इसके बाद अब क्या यही घड़ी महत्वपूर्ण होती है मन को जब कुछ समझ मे नहीं आता तो क्षणिक शून्यता में आ जाता है । इसलिए ध्यान के समय हर क्षण सजग रहना चाहिए और इस क्षणिक शून्यता की स्थिति को पहचानना चाहिए । जैसे जैसे हम ध्यान में इस शून्यता को पहचानते हैं यह शून्यता क्षणिक से थोड़े थोड़े समय के लिए बढ़ता जाता है । यह शून्यता नैनो सेकेंड में होता है अगर हम ध्यान के समय सजग नहीं होते हैं तो यह शून्यता पकड़ में नहीं आएगा । इसलिए प्रारम्भ में कोई निर्देशित करता हो तो उसके निर्देश के हिसाब से ध्यान करना होता है । किसी के निर्देशन में ध्यान करने से इतनी सजगता बनी रहती है की हमारा ध्यान निर्देश देने वाले के आवाज़ पर स्थिर होता है और हम आवाज़ के प्रति सजग होते हैं । इसलिए ध्यान का शुरुआत अगर किसी के निर्देशन में हो तो अति उत्तम । तो मैं बात कर रहा था शून्यता की । ध्यान में कल्पना के द्वारा मन को अपने अनुकूल चलाया जाता है फिर मन क्षणिक शून्यता में आता है । यह सगुण से निर्गुण में रूप से अरूप में उतरना हुआ । सीधे निर्गुण या अरूप में उतरना बहुत कठिन है । कबीर दास निर्गुण उपासक थे किंतु राम नाम का नाव उन्हें भी पकड़ना पड़ा ।
तो ये कुछ बाते थी जो आपलोगों से शेयर किया ।
हो सकता है यह पोस्ट एक बार पढ़ने से समझ मे न आये तब दो तीन बार सजगता के साथ पढियेगा ।
ध्यान में आप सबों की गति हो ।
ॐ ॐ ॐ

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