Sunday, 25 June 2017

रहस्यमयी हिमालय 16

दीक्षांत समारोह समाप्त हुआ
महायोगी अभेदानन्द ने बोलना प्रारम्भ किया
“ तंत्र कल्याण का विज्ञान है स्व कल्याण का | तन्त्र के माध्यम से योगी विभिन्न बिजमन्त्रों के द्वारा कुल कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार से उठा कर सहस्त्रार तक ले जाते हैं फिर सहस्त्रार  से पुन : मूलाधार पर ले आते हैं | तंत्र में पञ्च मकार सेवन का विधान है | ये पञ्च मकार हैं – मांस , मध् , मीन , मुद्रा और मैथुन |”
वहां उपस्थित सभी साधक बहुत हीं तल्लीनता से योगी बाबा की बातें सुनते हुए किसी दुसरे हीं लोक में खो गये थे ऐसी ओजस्विता थी उनकी वाणी में |
महायोगी ने आगे कहना प्रारम्भ किया |
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने|
पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:||
महायोगी ने रुद्रयामल तन्त्र का ये श्लोक सुनाया | फिर इसके बाद इसका अर्थ उन्होंने इस प्रकार बताया |
“जिह्वा मूल या तालू मूल में जिह्वाग्र ( जीभ का अगला भाग ) को सम्यकृत करके ब्र्ह्मारंध्र ( सिर के चोटी से ) से झरते हुए आज्ञा  (भ्रू मध्य ) चक्र  के चन्द्र मंडल से हो कर प्रवाहमान अमृतधारा को पान करने वाला मद्य साधक कहा जाता है |” 
 जिह्वाग्र ( जीभ का अगला  भाग ) को तालू में लगाना हीं खेचरी मुद्रा कहलाता है ( साधक बिना किसी योग्य गुरु के इस अभ्यास को न करें क्योंकि अमृत के साथ विष का भी स्त्राव उसी स्थान से होता है इसमें गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए )
यह वास्तविक मद्यपान कहलाता है |”
एक साधक ने पूछा
“ आज कल के साधक जो बाहरी  मदिरा पान करते हैं क्या ये उचित है मेरे प्रभु |”
महायोगी ने कहना प्रारम्भ किया
“ बाहरी मदिरा पान का भी एक साधक के दृष्टिकोण से महत्व है | कुण्डलिनी शक्ति के उर्ध्वगमन होने पर भारी मात्रा में उर्जा का बहाव शरीर में होता है जो कभी कभी सच्चे साधकों के लिए असहनीय हो जाता है इसी उर्जा के वेग का  प्रभाव कम मह्शूश हो इसलिए मदिरा के माध्यम से  मस्तिष्क को शिथिल करने के लिए यदा कदा उच्च किस्म के साधकों को मदिरापान करना पड़ता है | स्मरण रहे भोग के लिए मदिरापान करना पाप है | औषध रूप में इसका प्रयोग किया जाता है |
सभी तन्त्र साधकों को ये स्मरण रखना चाहिए देखा देखी बिना सोचे समझे तन्त्र मार्ग का हावाला दे कर कभी भी मदिरापान न करें हाँ जब साधना के क्रम  में आवश्यकता मह्शूश हो तब गुरु आज्ञा से हीं बाहरी मदिरा का पान करें |
किन्तु फिर भी साधक को ये प्रयास करना चाहिए कि बाहरी मदिरापान की आवश्यकता न हीं पड़े |
वास्तविक मदिरापान तो ब्रह्मारन्ध्र से गिरते हुए  अमृत को पीना हीं है इस मदिरापान के आनन्द को वर्णन नहीं किया जा सकता |”
योगी बाबा ने समझाया |
आगे योगी बाबा ने कहा
“ आम व्यक्ति एवं सभी जीवों में  जो अमृत ब्रह्मरन्ध्र के बिंदु से  क्षरित होता है वही मूलाधार में आ कर काम उर्जा का निर्माण करता है जिससे सृष्टि के सृजन का कार्य होता है | किन्तु हमारे पूर्वज योगियों ने ध्यान के द्वारा अपने स्वयं के शरीर में प्रवेश कर इसके मर्म को इसके विज्ञान को समझा और युक्तिपूर्वक  एक नए विज्ञान का आविष्कार किया | योगियों के स्व साधना के क्षेत्र में जो भी अविष्कार हुए वे सभी ध्यान की गहरी अवस्था में हुए इसलिए वर्तमान विज्ञान को इसे पकड पाना कठिन है |”
महा योगी के इस ओजमयी ज्ञान का पान वहां उपस्थित सभी साधक तल्लीनता पूर्वक कर रहे थे |  

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