चैतन्य मन
मन की रेशमी जाल में फंसा हुआ हूँ मैं
और न जाने कितने भाव ,
मंद शीतल समीर की नाई
आतें हैं |
शीतलता की फुहार दे कर न जाने कहाँ
चले जाते हैं
और मैं उनकी अतीत की यादों में
पुलकता ,तडपता रहता हूँ |
और हाँथ कुछ भी नहीं आता |
क्रोध , वासना , लालच , घृणा के दानव भी
विकराल अग्नि से उतप्त
आतें हैं |
और कलुषिता , द्वेष और अजीब सी वेचैनी दे कर
चले जातें हैं |
किन्तु मेरा इनसे कोई नाता नहीं ,
मैं तो परम शून्य में आनंद पाता हूँ |
उस महामहिम परम सताधीस के आगोश में
खो जाता हूँ |
हाँ वहां "मैं" नहीं होता |
वहां कुछ भी नहीं होता
और सब कुछ होता है |
-आपका सत्येन्द्र
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