गोस्वामी
तुलसीदास की बहुत फजीहत हुई है उनके जीवन काल में भी और अब भी हो रही | वर्ना तुलसीदास जी की लेखनी
ने वर्तमान
की समस्यायों का भी हल भी चुटकी
में सुझाया है आवश्यकता उनको ठीक से मनन चिंतन करने की है | आईये उन पर आरोप प्रत्यारोप लगाने
की वजाय उन पर पुन : विचार करें |
गोस्वामी जी ने बाल कांड में कहा
है "बंदऊँ संत असज्जन चरना | दुःख प्रद उभय बिच कछु बरना || बिछुरत एक प्राण हरि लेंहीं | मिलत एक दुःख दारुण देंही || अर्थात इसका अर्थ कुछ इस प्रकार
है |मैं संत और असंत दोनों की बंदना करता हूँ , दोनों हीं दुःख के कारण
बनतें हैं |तुलसीदास
जी ने दोनों की वंदना की है ये उनकी उदारता है | एक के बिछुड़ने से प्राण हरण होता
है | दुसरे के मिलते हीं भारी कष्ट
होता है | तुलसीदास जी ने कहा है "
बिछुरत एक प्राण हरि लेंहीं " अब कोई इस पंक्ति का तिल का ताड़
बनाने लगे की उन्होंने (तुलसीदास ) कहा संतो के बिछुड़ने पर प्राण निकल जातें हैं , अर्थात मौत हो जाती है | लेकिन व्याहारिक जीवन में तो ऐसा
देखने में नहीं मिलता है |और अर्थ का
अनर्थ करने वाले ये भी कहेंगे तुलसीदास जी ने संत कहा , इसके उदाहरण में दो चार भ्रष्ट बाबाओं को संत
बता देंगे की इनके बिछुड़ने पर
कहाँ कोई तकलीफ होती है | प्रिय
संत अगर कोई बिछुड़े न
तो वास्तव में प्राण हरण हो जाता है उदाहरनार्थ, प्रसिद्ध संत निज्जमुद्दीन औल्लिया के
मृत्यु के बाद आमिर खुसरो ने शोक से अपने वस्त्र फाड़ दिए और कुछ दिन
के बाद उनकी मृत्यु हो गयी | कहाँ जी पाइएगा किसी प्रिय संत के बिछुड़ने पर, अगर कोई जीता रह गया तो दोष खुद
में हीं है | अब संत कौन है ये कैसे जाने
हालाकि अनुभव के आधार पर ज्ञात हो हीं जाता है फिर भी तुलसीदास जी ने उन्हें भी
जानने की व्यवस्था कर दी है |
तुलसीदास जी ने संतो के लक्षण भी नारद
के मुख से कहलवाए हैं अरण्यकाण्ड के आखिर में | उसमे से कुछ यहाँ उधृत करना चाहूँगा | बिरती बिबेक बिनय बिग्याना |बोध जथारथ बेद पुराना || दंभ मान मद करहिं ना काऊ | भूली न देहि कुमारग पाऊ | संतो को विरक्ति युक्त , विवेकी ,विनयशील तथा परमात्मा के ज्ञान से
युक्त पाइएगा | यहाँ
विज्ञानं का अर्थ परमात्मा के प्राप्ति का विज्ञान से है | जी हाँ परमात्मा की प्राप्ति में
भी विज्ञान सहायक है | आज कल वैज्ञानिकों के मुंह से यदा कदा God particle (ईश्वरीय तत्व) के बारे सुना जाता है आखिर में
विज्ञान भी परमात्मा तक हीं पहुंचेगा | और संतो को वेद पुराणों का वास्तविक ज्ञान होता है | ध्यान रहे तुलसी दास ने यहाँ
जथारथ शब्द का इस्तेमाल किया है जिसका अर्थ है वास्तविक ज्ञान ! थोथा ज्ञान नहीं (
पंडित कठमुल्लों वाला तोंता रटंत ज्ञान नहीं )| संत अभिमानी नहीं होता , और भूल कर कुमार्ग अर्थात गलत मार्ग पर नहीं जाता |
संत असंत की बात मैंने इसीलिए उठाई क्योंकि समाज में दोनों का
वर्चस्व है |
यहाँ प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर
संत और असंत छिपा हुआ है | आवश्यकता है अपने भीतर के संतत्व को पहचानने की |और कभी भ्रम हो तो तुलसीदास जी ने
रामचरितमानस रूपी आइना दे हीं दिया है जब इच्छा हो निकाल कर देख लें |
आगे इस विषय पर आपकी रूचि और उत्कंठा देख कर पुन : उपस्थित होऊंगा अन्यथा नहीं |
सप्रेम आपका सत्येन्द्र कुमार
बिरति =बिरक्ति (वैराग्य ), बिबेक =विवेक ,बिनय
=विनय , बिग्याना= विज्ञानं , बोध (अहसास ),जथारथ =यथार्थ (वास्तविक ) दंभ ,मान , मद = अभिमान (अहंकार ) कुमारग = गलत रास्ता |
आरोप प्रत्यारोप लगाना आसान भी है और प्रसिद्धि पाने का शार्टकट भी, विचार वाला काम कठिन है|
ReplyDeleteआधी अधूरे सन्दर्भों के कारण और फिर बिना सम्यक अध्ययन के उन पर टीका टिप्पणी करने वाले अपने काम से नहीं डिगते तो आप क्यों अनुपस्थित रहेंगे?
मेरी रुचि भी है, उत्कंठा भी| आप इन बातों पर प्रकाश डाल सकते हैं तो यह कार्य जरूर कीजिये|
बहुत बहुत धन्यवाद महोदय हृदय से आभार ! आपने प्रोत्साहित किया तो एक नई ऊर्जा का संचार हुआ | मैं अपने कर्तव्यों से विमुख कतई नहीं होऊंगा आगे इस विषय पर अवश्य प्रकाश डालता रहूँगा | एक बार पुन: धन्यवाद !
ReplyDeleteदोनो अंकों का अवलोकन किया। हम जैसा देख पाते हैं ....जैसा अनुभव कर पाते हैं ...और फिर उसकी जैसी प्रतिक्रिया हमारे मन-मस्तिष्क में उत्पन्न होती है उसी के अनुरूप फिर हम उसे अभिव्यक्त करते हैं। तुलसीदास जी भी लेखन की इस प्रक्रिया के अपवाद नहीं हैं। अस्तु, पाठक भी स्वतंत्र है ....अपनी-अपनी क्षमता और पात्रता के अनुरूप ग्रहण करता है। ....तो भिन्नता स्वाभाविक है....एकरूपता का प्रश्न ही नहीं उठता। एकरूपता नहीं तो अंतिम भी कुछ नहीं ....अतः विमर्ष समाज की एक स्वस्थ्य और आवश्यक प्रतिक्रिया है। तुलसीकृत रामचरितमानस पर विमर्ष करते रहिये।
ReplyDeleteआदरणीय कौशलेन्द्र जी प्रतिक्रिया देने के लिए बहुत आभार ! आपके प्रोत्साहन से नई उर्जा का संचार हुआ | आगे भी लिखते रहने के लिए वचनवद्ध हूँ |
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